८६६ गीता-हृदय कोई खास जरूरत न थी। या तो इनके द्वारा होनेवाला समाज का काम आसानीसे चला जा रहा था और खेती, पशुप्रो या व्यापारकी प्रचुरता थी, या यह कि अभी उस ओर समाजका विशेष ध्यान न गया था । फलत ये वीज रूपमे ही थे। भरसक यह दूसरी ही बात थी। मगर इसपर अधिक विचार यहाँ हो नहीं सकता। फिर भी इतना तो जान ही लेना होगा कि जव तीन ही गुणोके अनु- सार वर्णोके कर्म बँटे है और यह बँटवारा स्वाभाविक है, न कि जबर्दस्ती वना या वनावटी, तव तो दरअसल ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इन्ही तीन वर्णोकी सभावना रहती है, न कि चौथेकी । यो तो हमने भी पहले इसी तरहके प्रसगमे चारो वर्णोका बँटवारा कर दिया है। मगर वह बात हमारी अपनी न होके परम्परासिद्ध ही है। वहाँ हमने अपनी ओरसे इस तीन या चारके वारेमे कुछ न कहके उसीका उल्लेख कर दिया है। अपनी वात तो हमने अलग ही कही है । शूद्र नामका कोई स्वतत्र वर्ण न था, हमने यही लिखा है। लेकिन जब यहां इन श्लोकोके शब्दो और प्रमगोको देखते है तो हमे साफ कहना ही पडता है कि शब्दोंके अर्थसें भी तीन ही वर्ण सिद्ध होते है। अगर सत्त्व, रज, तमकी मिलावटमे कमी-वेशी करके चौथेका भी रास्ता निकाल ले, जैसा कि किया जाता है और हमने भी लिखा है, तो इस तरह चारसे ज्यादा जाने कितने ही वर्ण बन सकते है । क्योकि मिलावटमे जो कमी-वेशी होगी वह तो हजारो तरहकी हो सकती है न ? अाधा, चौथाई, दशमाग, गताश, सहस्राग आदिके हिसाबसे वह सम्मेलन, वह मिश्रण हजारो तरका हो जायगा। इसलिये हमारे जानते यह बात दार्शनिक युक्तिने शून्य है। देखिये न, ४१वें ग्लोकमे ही तो 'प्रविभक्तानि' लिखा है, जिसका अर्थ है कि नबोके कर्म बिलकुल ही जुदे-जुदे है । मगर जब सेवा सबोका धर्म वन गई और गूदके लिये दूमग कुछ बताया ही नहीं,तो उसके कर्मको
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