८९८ गीता-हृदय उपाय कर्मके रूपमे बताया गया है वह इप्टमिद्धि के लिये काममें लाया कैसे जाय। स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः ससिद्धि लभते नरः । स्वकर्मनिरतः सिद्धि यथा विन्दति तच्छृणु ॥४५॥ यतः प्रवृत्तिभूताना येन सर्वमिद ततम् । स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धि विन्दति मानव ॥४६॥ अपने-अपने कर्मोमे लगे रहनेवाला मनुप्य ही मनकी शुद्धि-बुद्धिकी निर्मलता प्राप्त कर लेता है। अपने कर्मोमे ही लगा हुआ (वह यह) शुद्धि जैसे प्राप्त करता है वह भी सुन लो। जिस भगवानसे ही पदार्थोकी सृष्टि हुई और जो सम्पूर्ण जगत्मे व्याप्त है, मनुष्य अपने कर्मोसे ही- कर्मोके रूपमे ही-उसीकी पूजा करके (यह) सिद्धि-मन शुद्धि-पा जाता है ।४५।४६। पहले जो “यत्करोपि" (६।२७) अादिके द्वारा अपने-अपने कर्मोके करनेको ही भगवानकी पूजा कहा है उसीसे यहाँ मतलब है, न कि किसी और चन्दन, अक्षत, घटीवाली पूजासे । स्वकर्मणा शब्दसे यह बात साफ है । ऐसा करनेसे कैसे मनकी शुद्धि होगी अव यही बात कहना जरूरी था और ४६वें श्लोकमें यही कही भी गई है । लेकिन शायद लोग अपने-अपने कर्मोसे डिग जाये और पूजाका दूसरा ही आरती, घटीवाला रुप खडा कर दे, इसीलिये उधरसे रोकने और स्वकर्म पर ही जोर देनेकी जरूरत आगे बढने के पहले ही समझी गई। दो श्लोकमें यही बात कह भी दी गई है। ठीक भी है न ? पूजा तो-और ही चीज मानी जाती है । यह निराली पूजा कैसी ? लोगोको सहसा ताज्जुब हो सकता है । इस- लिये उसकी सफाई कर देना जरूरी हो गया। ऐसा भी हो सकता है कि शासन और युद्धादिके कामोको निर्दयता और हिसाकी चीज समझ लोग --
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