पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/८७७

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अठारहवाँ अध्याय ८९७ ? प्रविभक्त कहना कैसे उचित होगा? और अगर यह बात न हो तो उसे स्वतत्र वर्ण कैसे माना जाय इसी ४१वे श्लोकमे ही एक मजेदार बात और है। आगे तो ब्राह्मण, और क्षत्रियको अलग-अलग श्लोकोमे कहके शूद्र और वैश्यको एक हीमे कह दिया और जैसे-तैसे काम चला लिया है। पहले भी "स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रा" (६।३२)मे इसी तरहकी बात आई है। हमने वही इसका इशारा भी कर दिया है। मगर ४१वे श्लोकमे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तीनोका एक ही समस्त पद बनाके 'ब्राह्मणक्षत्रिय- विशा' कह दिया है। केवल शूद्रको अलग 'शूद्राणा' कहा है। समास करने पर श्लोकमे अक्षर न बढ जाय और छन्दमे गडबड न हो जाय इसके लिये वैश्यकी जगह उसी अर्थमें विश्शब्द रखना पडा है। फिर भी चाहते तो "विप्राणा क्षत्रियाणा च विट्शूद्राणा च भारत" ऐसा श्लोक बना दे सकते थे। किन्तु ऐसा न करके तीनोको एक जगह जोडनेमे यही आशय प्रतीत होता है कि दरअसल विभक्त कर्म तीनके ही है और स्वतत्र वर्ण भी यही है। हाँ, शूद्र भी माना जाता है। मगर उसके कर्म ऐसे नही है। और जब सब चीजे तीन ही तीन गिनाई गई भी है तो वर्णोको एकाएक चार कह देना भी प्रसगसे अलग सा हो जाता है। वैश्यके व्यापारको सत्यानृत या झूठ-सचकी चीज कहते भी है और खेती भी हिसामय ही है, और ये दोनो तामसी ही है । इसलिये उसे तामस, क्षत्रियको राजस और ब्राह्मणको सात्त्विक मानना ही उचित है । यही बात खूब जंचती भी है । क्षत्रिय तो राजा भी कहा जाता है और उसकी राजसी ही बात मानी भी जाती है । ज्ञान तो सात्त्विक हई । बस, अधिक आगेके लिये। अब आगे ४५वे श्लोकसे जो बात शुरू होती है वह यही कि जो ५७ 6