६०२ गीता-हृदय बुद्धचा विशुद्धया युक्तोधृत्यात्मान नियम्य च । शब्दादीविषयास्त्यक्त्वा रागद्वेषी व्युदस्य च ॥५१॥ विविक्तसेवी लघ्वाशी यतवापकायमानस. । ध्यानयोगपरो नित्य वैराग्य समुपाश्रितः ॥५२॥ श्रहकार वल दपं काम क्रोध परिग्रहम् । विमुच्य निर्मम. शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥५३॥ (इस प्रकार पूर्ण नैष्कम्यंको) सिद्धि प्राप्त कर लेनेपर (मनुप्य) जिम तरह ब्रह्मको प्राप्त हो जाता है और जिसे परले दर्जेको ज्ञाननिष्ठा कहते है वह मुझसे जान लो। निर्मल सात्त्विक बुद्धिवाला (मनुप्य) (मात्त्विक) धर्यके वलसे मनको रोकके, गब्द आदि (इन्द्रियोंके) विषयोको छोडके और रागद्वेषको हटाके एकान्त देशका सेवन करते, हलका भोजन करते तथा जवान, मन और शरीरको कामे रखे हुए निरन्तर ध्यानयोग- में ही दत्तचित्त होता एव वैराग्यको पक्का कर लेता है। (फलत) ग्रहकार, बलप्रयोग, ऐठ, काम, क्रोध और सभी लवाज़िमसे नाता तोडे हुए, ममतारहित (तथा पूर्ण) गातियुक्त होके ब्रह्मका रूप हो जाता है।५०१५११५२॥५३॥ ब्रह्मभूत प्रसन्नात्मा न शोचति न काक्षति । सम. सर्वेषु भूतेषु मद्भक्ति लभते पराम् ॥५४॥ भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वत । ततो मा तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम् ॥५५॥ ब्रह्मस्वरूप निर्मल मनवाला (मनुप्य) न तो कोई चिता रखता है, न इच्छा। वह सभी पदार्थोमे समदृष्टि-रूप मेरी परमभक्ति पा जाता है । मुझ प्रात्मा-ब्रह्मका जो भी और जैसा भी स्वरुप है उसे इस समदर्शन
पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/८८२
दिखावट