अठारहवां अध्याय ६०३ रूप भक्तिके बलसे अच्छी तरह जान जाता है (और) (इस तरह) मेरे तत्त्वज्ञान के बाद ही फौरन मुझमे प्रवेश कर जाता है ।५४१५५। यहाँ भक्तिको परा कहा है। इसका अर्थ है सबसे ऊँचे दर्जेकी भक्ति, जिसे "ज्ञानीत्वात्मैव मे मतम्” (७।१८) मे पूर्ण ज्ञान कहा है और जिसका स्वरूप “वासुदेव सर्वमिति” (७।१६) बताया है । यदि परा भक्ति न हो तो वहाँ जो निचले दर्जे के तीन भक्त गिनाये है उन्हीवाली भक्ति हो जायगी। यहाँ भी उसका रूप “सम सर्वेषु भूतेषु" कह दिया है । इसीलिये उसका पूरा विवरण भी "भक्त्या मामभिजानाति'मे कर दिया है, जिसमे कोई शकशुभा रही न जाय । मुझमे प्रवेश करने का अर्थ कही जाना-माना नहीं है। इसीलिये 'मयि विशते' न कहके ‘मा विशते' कहा है। इसका ठीक-ठीक अर्थ “समुद्रमाप. प्रविशति" (२।७०) जैसा ही है। वहाँ भी वही द्वितीयान्त है जैसा यहाँ । इस प्रकार जब आत्मदर्शी और ब्रह्मनिष्ठ हो जाता है तो उसकी क्या दशा होती है यह प्रश्न स्वभावत उठता है और उसका उत्तर जरूरी हो जाता है। उसकी दोई हालते हो सकती है । वह वामदेव, शुकदेव आदिकी तरह विलकुल ही मस्तराम हो सकता है । फिर तो कोई सुध- बुध उसे रही न जायगी। उसीकी बात “यस्त्वात्मरतिरेव” (३।१६) में कही जा चुकी है । असलमे ऐसे लोग एक तो कम होते ही है । क्योकि जीतेजी मुर्दा बनना आसान नहीं। यह बड़ी ही दुर्लभ वात है। दूसरे व्यावहारिक दुनियामे आमतौरसे न तो उन्हें लोग पहचानी सकते और न उनसे कोई फायदा ही उठा सकते । गीताको व्यावहारिक ससारकी ही ज्यादा पर्ग भी है। अर्जुनके लिये यही उपयुक्त भी था। प्रथमत तो उसीको यह उपदेश दिया भी गया है। इसीलिये मस्तरामोकी वात फिर कहनेकी कोई खास जरूरत रही नही गई थी; हालाँकि अगले श्लोकमे उनकी भी बात है, यह आगे स्पष्ट हो जायगा। उनके वारेमे
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