पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/८८५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अठारहवां अध्याय ६०५:- इस तरह यहाँ कर्मोको आत्मामे न रहने देने या न माननेकी वातका उपसहार भी साफ-साफ हो जाता है। इस ५७वे श्लोकका आशय पहले ही बताया जा चुका है। चेतसा सर्वकर्माणि मयि संन्यस्य मत्परः। बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्तः सततं भव ॥५७॥ मच्चित्तः सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि । अथ चेत्त्वमहकारान्न श्रोष्यसि विनंक्ष्यसि ॥५८॥ यदहंकारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे । मिथ्यष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति ॥५६॥ स्वभावजेन कौन्तेय निबद्धः स्वेन कर्मणा । कर्तुं नेच्छसि यन्मोहात्करिष्यस्यवशोऽपि तत् ॥६॥ (इसी ज्ञानयोगकी शरण जाके) मन और हृदयसे सभी कर्मोको परमात्मामे समर्पित करो, उसीमे चित्त लगायो और उससे वढके और कुछ न जानो । परमात्मामे चित्त लगानेसे उसीकी कृपासे-आत्मज्ञानके ही प्रतापसे-सभी सकटोसे पार हो जाओगे । लेकिन यदि घमड मे आके (मेरी यह बात) न सुनोगे तो चौपट हो जाओगे। (इतना ही नहीं।) अगर अहकारमे आके तुमने नहीं ही लडनेका निश्चय किया भी तो तुम्हारा यह उद्योग-यह निश्चय-झूठा होगा-व्यर्थ होगा (और) तुम्हारा स्वभाव तुम्हे (लडाईमे) डालके ही रहेगा। (क्योकि) हे कौन्तेय, अपने स्वाभाविक कर्मके साथ जकडे होनेके कारण यदि यह काम- युद्धभूलसे नही भी करना चाहो तो भी मजबूरन तुम्हे इसे करना ही होगा ।५७१५८१५६६०॥ कर्मोका भगवानमे सन्यास या अर्पण क्या चीज है और इस तरह