पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/८८६

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६०६ गीता-हृदय न ? आत्मासे उनका कैसे सम्बन्ध छुट जाता है इसपर बहुत ज्यादा प्रकाश पहले ही डाला जा चुका है। यहाँ जो बार-बार 'मयि', 'मत्' आदि शब्दोके द्वारा परमात्माका उल्लेख किया गया है उससे शायद लोगोको यह भ्रम हो सकता है कि ईश्वर या परमात्मा कोई दूसरा पदार्थ है जो कही अन्यत्र रहता है । उसीमे मन लगाने और उसे ही कर्मोको अर्पण करनेकी बात कही गई है। क्योकि यदि वह आत्माका स्वरूप ही हो तो कर्मोको आत्मामे ही रखना हो जायगा सन्यस्य शब्द जो पहले ५७वें श्लोकमें आया है उसका तो अर्थ ही है धरोहर या थाती रखना। ऐसी दशामे अबतकका यह कहना व्यर्थ हो जायगा कि आत्माम कर्म रहता ही नहीं, उसका कर्मसे ताल्लुक हई नही। इसीलिये ईश्वरको अलग ही मानना ठीक है। मगर ऐसा समझनेवालोंके सामने भी तो यह दिक्कत रही जाती है कि आत्मा या जीवका कर्म, या यो कहिये कि मनुष्योका कर्म वहाँ कैसे रखा जायगा ? और जब पहले ही कह दिया है कि "न च मा तानि कर्माणि" (818)-“इन कर्मोंसे मेरा कोई ताल्लुक हई नही", तो फिर कर्म उसमें रहने पायेगे कैसे ? यदि यह कहा जाय कि ईश्वर तो कर्मों के लिये अग्नि जैसा ही है, और भस्म हो जानेके लिये ही उसमे कर्म डाल दिये जाते है, तो यह बात तो "ज्ञानाग्नि सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा" (४१३७) के द्वारा पहले ही कह दी गई है कि आत्मज्ञानके द्वारा ही सभी कर्म दग्ध हो जाते है। इसलिये एक तो ईश्वरमें डालनेका भी अर्थ समदर्शन ही होगा। दूसरे ईश्वर प्रात्मासे जुदा फिर भी सिद्ध न होगा। फिर तो वह गका बेबुनियाद ही सिद्ध होगी। असल बात यह है कि आत्मज्ञानी कर्मोकी पर्वा करता ही नही कि वे क्या चीज है और कब कैसे हो रहे है। उनका परिणाम क्या होगा यह भी खयाल उसके दिलमे भूलकर भी नहीं आता है । वह तो यही ?