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पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/८९३

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अठारहवाँ अध्याय ९१३ बूझके करो और जो चाहो सोई करो, उससे साफ हो जाता है कि आज्ञा या हुक्मकी गुजाइश गीतामे है नहीं। यहाँ तो अपने दिलसे ही चलनेकी वात है । यह ठीक है कि जो कुछ करना हो उसे बखूबी समझ-बूझके करना चाहिये । मगर करना है अपनी ही मर्जीसे, अपनी रायसे ही, जिसे इच्छा कहते है। क्योकि जवाबदेही तो अपने ही ऊपर आनेको है न ? फिर दूसरेके दवाव या हुक्मका क्या सवाल वह जाय ? और अगर माना गया तो जवाबदेही करनेवालेपर न होके आज्ञा देनेवालेपर ही जो हो जायगी। इसपर तो हमने पहले श्रद्धाके प्रसगमे ? क्यो माना बहुत लिखा है। 'अशेषेण विमृश्य' कहनेका एक और भी अभिप्राय है । एक तो विमर्श ही व्यापक चीज है । इसके मानी ही है कि सभी पहलुअोपर अच्छी तरह गौर कर लिया जाय । लेकिन जब उसके साथ 'अपेण' भी जुटा है, तव तो कहनेका मतलव साफ हो जाता है कि खवरदार, एक बात भी छूटने न पाये । शुरूसे यहाँतक जितनी वाते कही गई है सभीको सामने रखके अच्छी तरह उनपर सोचो-विचारो और गौर करो। उसके बाद जिस निश्चयपर पहुँचो उसीके अनुसार काम करो। असलमे गीतोपदेशकी पूर्वापर बातोको भूल जानेसे ही ज्यादा गडवड होती है और लोग कुछका कुछ निश्चय कर बैठते है । दृष्टान्तके लिये “ईश्वर सर्वभूताना"को ही ले सकते है । जाने कितनोने इसका सचमुच ही आत्मासे भिन्न ईश्वर अर्थ करके इस आत्माको उसके चरणोमे झुका दिया है, उसका सेवक और गुलाम बना दिया है। हम तो इसे आत्माका पतन मानते है, न कि और कुछ भी। फिर भी ऐमा ही किया गया है, हालांकि यदि गीताकी ही पहलेको वाते याद रहे तो यह वात कभी न हो। “न कर्तृत्त्व न कर्माणि (५।१४-१५) श्लोकोमे अात्माके ही लिये प्रभु और विभु शब्द आये है, जो आमतौरसे ईश्वरके ही लिये प्रयुक्त होते है । वल्कि इसीसे ५८