६१४ गीता-हृदय बहुतेरे यहाँ भी धोका खा गये है और ईश्वर ही अर्थ कर डाला है, हालाँकि हमने यह भूल वही सुझा दी है मगर इसे भी जाने दीजिये। क्योकि यहाँ विवादकी गुजाइश है। "भर्ता भोक्ता महेश्वर परमात्मेति चाप्युक्त (१३१२२)में तो साफ ही जीवात्माको ही ईश्वर क्या महेश्वर और परमात्मातक कहा है, परम- पुरुषतक कहा है। कहा ही नहीं है, बल्कि ऐसा ही पहलेसे कहा जाता है यह बताया है। यहाँ विवादकी जगह हई नही। इसके बादवाले "तिष्ठन्त परमेश्वरम्” (१३।२७) को हम छोड ही देते है, हालांकि वहाँ भी परमेश्वर शब्द जीवात्माके ही लिये आया है। मगर "शरीर यदवाप्नोति यच्चाप्युत्कामतीश्वर" (१५८) में तो साफ ही मरने-जीनेके प्रसगमे ईश्वर शब्द जीवात्माके ही लिये आया है। यहाँ तो सन्देहके लिये जरा भी स्थान नही है। फिर भी “ईश्वर सर्वभूताना" मे अगर ईश्वरका अर्थ आत्मा न करके और कुछ किया जाय तो मानना ही होगा कि पूर्वापर विचारके विना ही ऐसा होता है। फलत "विमृश्यतदशेषेण" कहना जरूरी था । यही वजह है कि इतना कहने के बाद भी एक बार और यही बाते शब्दान्तरमे चलते-चलाते याद ' दिला देते है, ताकि धोकेकी भी गुजाइश रहने न पाये और अर्जुनका निश्चय सही और दुरुस्त होके ही रहे। इतना कहनेपर भी स्वय कृष्णको सन्तोष न हुआ। क्योकि परिस्थिति नाजुक थी। उनने उपदेशके शुरूमे अर्जुनकी पाश्चर्यजनक मनोवृत्तिको भी खुद अनुभव किया था। वह देख रहे थे कि उसमे कितनी कमजोरी आ गई है। जिस बातके लिये वह सपनेमे भी तैयार न थे वही देखके वह एक तरहसे दहल उठे थे। उन्हें अर्जुनका अनुभव बचपनसे ही था। पांचो भाइयोमें उसे सबसे ज्यादा वह मानते भी थे। यही वजह थी कि सबोके बुरा मानने और लाख नाक-भौ सिकोडनेपर भी अपनी बहन सुभद्रासे
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