७७ व्यवसायात्मक बुद्धि इच्छा या कल्पनाको जुदा-जुदा रखा है। क्योकि कर्मोके फल तो पहलेसे निर्धारित या बने बनाये होते नही। वे तो नये सिरेसे बनते है, बनाये जाते है । हर आदमी चाहता है कि एक ही कर्मका फल अपने-अपने मनके अनुसार जुदी-जुदी किस्मका हो। यह भी होता है कि एक ही आदमी खुद रह-रहके अपने खयाल फलोके वारेमे बदलता रहता है। परिस्थिति उसे मजबूर करती है । एक ही युद्धके फलोकी कल्पना हर लडनेवाले जुदी-जुदी करते है। साथ ही एक आदमीकी जो कल्पना शुरू मे होती है मध्य या अन्तमें वह वदल ती है, ठीक उसी हिसाबसे जिस हिसावसे उसे अपनी शक्ति और मौकेका अन्दाज लगता है। इसीके साथ यदि कर्मोके करने न करने या उनके छोडने न छोड़नेके हठोकी वात मिला दे, तब तो बुद्धि और खयालोके परिवारको अपार वृद्धि हो जाती है । वह पक्की चीज तो होती ही नही। कभी कुछ खयाल तो कभी कुछ । एक ही फलके विस्तारका रूप भी विभिन्न होता है। मगर योगमे तो सारा झमेला ही खत्म रहता है। वहाँ तो "न नौ मन तेल होगा और न राधा नाचेगी"वाली बात होती है। इसीलिये उसकी महत्ता बताई गई है। ५२से लेकर ७२ तक-अध्यायके अन्त तक-के श्लोकोमे उसी द्धिका विशद चित्र खीचा गया है। वह कितनी कठिन है, दुसाध्य है यह भी बताया गया है । मस्तीको अवस्था ही तो ठहरो आसिर । इसीलिये तीसरे अध्यायके पहले ही दलोकमें उसी बुद्धिकी यह महिमा जानके अर्जुनने कर्मके झमेलोसे भागने और उस बुद्धिका ही महारा लेनेकी इच्छा जाहिर की है । मगर यह तो ठीक ऐसी ही है जैमी कि किसीकी यकायक गुरु बन जानेको हो इच्छा । ।