पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/९१

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२-गीताधर्म और मार्क्सवाद १. गीता धर्म ताको अनेक महत्त्वपूर्ण शिक्षाप्रो और वातोपर अभी प्रकाश डालना बाकी ही है। मगर यह काम करने के पहले उसके एक बहुत ही अपूर्व पहलूपर कुछ विस्तृत विचार कर लेना जरूरी है। गोताको कई अपनी निजी बातोमें एक यह भी है । हालांकि जहाँतक हमे ज्ञात है, इसपर अवतक लोगोकी वैसी दृष्टि नही पडी है जैसी चाहिये । यही कारण है कि यह चीज लोगोके सामने खूब सफाईके साथ प्राई न सकी है । उसीके सिलसिलेमें गीताको दो-एक और भी बातें आ जाती है। उनका विचार भी इसी प्रसगमे हो जायगा। सबसे बड़ी बात यह है कि जिस वातका हम यहाँ विचार करने चले है उसका वहुत कुछ ताल्लुक, या यो कहिये कि बहुत कुछ मेलजोल, एक आधुनिक वैज्ञानिक मतवादसे भी हो जाता है-उस मतवादसे जिसकी छाप आज समस्त ससारपर पडी है और जिसे हम मार्क्सवाद कहते है। यह कहनेसे हमारा यह अभिप्राय हर्गिज नही है कि गीतामे मार्क्सवादका प्रतिपादन या उसका आभास है। यह वात नही है। हमारे कहनेका तो मतलब सिर्फ इतना ही है कि मार्क्सवाद- की दो-एक महत्त्वपूर्ण बाते गीताधर्मसे मिल जाती है और गीताका मार्क्स- वादके साथ विरोध नहीं हो सकता, जहाँतक गीताधर्मकी व्यावहारिकतासे ताल्लुक है । यो तो गोतामें ईश्वर, कर्मवाद आदिकी छाप लगी हुई है। मगर उसमें भी खूबी यही है कि उसका नास्तिकवादसे विरोध नहीं है और यही है गीताकी सबसे बड़ी खूबी, सबसे बडी महत्ता । यही कारण .