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पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/९००

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६२० गीता-हृदय यहाँ भी 'वक्ष्यामि'का कहूँगा यह अर्थ न होके अभी-अभी कहे देता हूँ यही अर्थ है । इसका कारण पहले ही बताया जा चुका है। दूसरे श्लोकमे 'माम्', 'मत्' आदि शब्द 'अह'के ही रूप है और 'अह'का अर्थ आत्मा ही है यह सभी जानते है । इसपर बहुत कुछ कहा जा भी चुका है । 'सत्य प्रतिजाने का अर्थ है विश्वास करो, सच कहता हूँ। यहाँ 'प्रतिजाने का मीधे 'प्रतिज्ञा करता हूँ" यह अर्थ कुछ बैठतासा नही है । 'सर्वधर्मान्' श्लोककी तो लम्बी-चौडी व्याख्या पहले ही की गई है। वहाँ जाने कितनी ही शकाओ का उत्तर दिया जा चुका है । इसलिये वे बाते यहाँ फिर लिखना बेकार है। मगर दो-एक अन्य बातें लिख देना जरूरी है। जो लोग 'सर्वधर्मान् परित्यज्य'का यह अर्थ करते है कि धर्मोके फलोका त्याग करके शरणमे आनो उन्हे यह खयाल करना भी तो चाहिये कि जब धर्मोको करते ही रहेगे तो फिर पापका प्रश्न उठेगा ही कैसे ? पापकी बात तो तभी आती है जव नित्य, नैमित्तिक कर्मोको ही छोड दिया जाय । यही धर्मशास्त्रोका निश्चित मत है। लेकिन यदि पापकी बात न होती तो उत्तरार्द्धमे यह क्यो कहते कि तुम्हें सभी पापोसे छुटकारा दिला दूंगा जिस तरह 'धर्मान्' यह बहुवचन लिखा है, ठीक वैसे ही 'पापेभ्य' यह भी बहुवचन ही पाया है, यह भी बात है। इससे दोनोका सम्बन्ध बलबी जुट जाता है और आशय सिद्ध होता है कि धर्मोके छोडनेसे ही जो पापोका खतरा पैदा हो गया था उसीसे छुटकारा दिलानेकी बात यहाँ कही गई है। इसपर ऐसा कहनेका यत्न हो सकता है कि 'पापेभ्य'का अर्थ है जन्म- मरणके सभी बन्धनोसे छुटकारा दिलाना ही । इसीलिये तो 'मोक्षयिष्यामि' क्रियामें मोक्षकी बात लिखी गई है। परन्तु यह भी ठीक नही है । क्योकि 'मोक्षयिष्यामि' कह देनेसे ही उसका अर्थ ही यह होता है कि सभी बन्धनोसे छुट्टी हो जायगी। मोक्ष शब्दका अन्य अर्थ हई नही। फिर ‘पापेभ्य शब्दसे वन्धन अर्थ लेना महज वेकार और निरर्थक है। इसके पहले इसी ? 1