पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/९०१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अठारहवाँ अध्याय ६२१ मोक्षकी बात “परा शान्ति स्थान प्राप्स्यसि शाश्वतम्” (१८।६२) तथा "मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वत पदमव्ययम्” (१८५६) आदिके द्वारा कहके भी वहाँ पाप या बन्धनसे छुटकारेकी बात नही लिखी है, हालाँकि मोक्ष शब्द न रहनेसे वहाँ ऐसा लिखने का मौका था भी। मगर यहाँ तो वह भी नही है । फिर ‘पापेभ्य 'की क्या जरूरत थी ? इससे तो मानना । ही पडेगा कि अर्जुनको जो डर था कि कही नित्य-नैमित्तिक कर्मोके छोड देनेसे पाप न चढ बैठे, उसीके लिये उसे आश्वासन दिया गया है कि बेफिक्र रहो, ऐसा कुछ न होगा। 'मोचयिष्यामि'की जगह 'मोक्षयिष्यामि' कहने का साफ आशय यही है कि जैसे प्रायश्चित्तादिके द्वारा पापोसे छुटकारा होता है वैसी बात यहाँ न होके मुक्ति ही मिल जायगी और सदाके लिये पापसे पिड ही छुट जायगा । इस श्लोकमे जो ‘परित्यज्य' शब्द है उससे स्पष्ट हो जाता है कि अद्वैत आत्माकी शरण जाने के पहले सभी धर्मोको सोलहो आना छोडना ही होगा। उसके बिना काम चलने का नही। इसका अभिप्राय यही है कि इससे पूर्वके श्लोकमे जो आत्मतत्त्वमे ही मनको रमाना लिखा है और जिसे ही उसकी शरण जाना भी कहते है, उसके पहले ही सभी धर्मोको छोडना ही होगा। पहले उन्हे छोड लो, पीछे शरण जानेकी बात सोचो, यही उसका निचोड है । पूर्वकालिक क्रियाका दूसरा मतलब नहीं है । जैसे कहा जाय कि सुनते ही विषादमे डूब गया “श्रुत्वैव विषण्णो जात तो यहाँ जो पूर्वकालिक क्रिया "श्रुत्वा" है उससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि विषादका कारण अप्रिय समाचार सुनना ही है। वैसे ही यहाँ भी शरण जानेका कारण सभी धर्मोंका परित्याग है । त्याग न कहके परित्याग कहनेका भी यही अभिप्राय है कि बखूबी त्याग करना होगा, न कि आधा- साझा करके "आधा तीतर आधा बटेर" करना होगा। इसमे गुजर है नही। हाँ, एक बात और । कर्माके स्वरूपत त्यागके बाद जब ज्ञान-