अठारहवाँ अध्याय हे राजन्, हरिका-कृष्णका--वह अत्यत अद्भुत रूप याद कर करके मुझे महान् विस्मय हो रहा है और बार-बार गद्गद हो जाता हूँ॥७७।। इस श्लोकके सम्बन्धमे बहुत सी बाते थोडी देर पहले कही जा चुकी है। फिर भी कितनी ही कहनेको शेप है। बहुतोकी यह धारणा है कि सजय यहाँ भगवानके उस विश्वरूपके ही बारे मे कह रहा है जिसका वर्णन ग्यारहवे अध्यायमे आया है। प्राय सभी भाष्यकारो और टीका- कारोने यही अर्थ किया है। दर हकीकत मेरी नजरके सामने एक भी टीका अबतक ऐसी नही गुजरी है, जिसमे वैसा अर्थ न किया गया हो । हरिके रूपके अति, अद्भुत आदि विशेषणोसे ही और भी आसानीसे इस अर्थकी ओर लोग झुक पडे है । मगर हमने तो पहले लिखा है कि यह बात नही है। इसका कारण भी काफी दिया है। इतना ही नही। हमने तो यह भी चित्रित करनेका यत्न किया है कि जिस रूपका यहाँ उल्लेख है वह वस्तुत किस तरह का था। रथपर अर्जुन और कृष्ण दोनो ही खडे थे। युद्धमे ऐसा ही होता था। कृष्ण घोडोकी बाग पकडे खडे थे। मगर जव अर्जुनने अपना रोना गाना एकाएक शुरू कर दिया तो जो कृष्ण घोड़ोकी ओर मुंह किये खडे थे वह अचानक यह सुनते ही पीछे मुंड पडे और अर्जुनकी वाते गौरसे सुनने लगे। जैसे जैसे बाते सुनते जाते थे उनका चेहरा-मुहरा बदलता जाता था। ऐसा होते होते "अशोच्यानन्वशोचस्त्व" (२०११) शुरू करने के पहले तक उनकी जो अलौकिक भावभगी हो चुकी थी हमने उसीका चित्र खीचने का यत्न किया है और उसीसे यहाँ आशय है । भला विश्वरूप दर्शनसे और गीतोपदेशसे क्या ताल्लुक वह तो गीतोपदेशके बीचकी हजार वातोमे केवल एक है। मगर यहाँ तो स्पष्ट ही गीताके समूचे सवादका और योगका उल्लेख है। योग भी वह जिसे कृष्णने कहा था, जिसे वह कह रहे थे। क्योकि साफ ही “कथयत" लिखा है । न कि जिसे दिखाया था। यह मार्केकी बात ?
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