गीता-हृदय एक बात, और भी है। विश्वरूपके बारेमे ग्यारहवे अध्यायमे स्पष्ट ही कहा है कि अर्जुनके अलावे पहले किसीने भी उसे नहीं देखा था और न आगे कोई देख ही सकता है। यह बात हमने ग्यारहवे अध्यायके उन श्लोकोको उद्धृत करके थोड़ी ही देर पहले सिद्ध की है। किन्तु यह बात झठी हो जाती है यदि मजय उस विश्वरूपको याद करता है। क्योकि स्म तिके पहले तो देखना जरूरी है न ? विना देखे स्मृति कैसी ? अर्जुन या कृष्णके मुखसे जो कुछ वर्णन ग्यारहवे अध्यायमे आया था केवल उसे वहाँ कह देना और बात है। वह जैसेका तैसा सुनके ही हो सकता था । मगर उसमे वह मजा स्वय सजयको नहीं मिल सकता था जो देखनेमे मिलता। देखे हुए हीका जो प्रबलतम सस्कार होता है वही जगके उसे ला खडा करता है आँखोके सामने । सुने हुएके बारे में यह बात नहीं होती, नही हो सकती। सजयको दिव्य दृष्टि मिलने पर भी ग्यारहवे अध्याय- वाले कृष्णके वचनोसे ही सिद्ध है कि वह विश्वरूप न तो पहले किसीने देखा था और न आगे कोई देख सकेगा। तव सजय उसे देख सकता था यह बात मानी कैसे जा सकती है ? लेकिन इस श्लोकके पदोको पढके कोई भी कह सकता है कि आँखो देखे स्वरूपका ही उल्लेख सजय करता है । फलत उपदेशके प्रारभवाले रूपसे ही यहाँ तात्पर्य है । इसके सम्बन्धमें इसी श्लोकमे एक और भी प्रमाण मिल जाता है । हमने तो पहले ही कहा है कि विलक्षण और अलौकिक होनेके नाते ही उस सवादको आंखोके सामने वरावर नाचनेवाला मानके उसे बार-बार 'एतत्', 'इमम्' कहा है। लेकिन कृष्णका विश्वरूप तो और भी ज्यादा आँखोंके सामने नाचनेवाला था। फिर भी उसे इसी श्लोकमे 'तच्च' कह दिया है । 'तत् च'मे उसे 'तत्' या दूरका कहने के क्या मानी हो सकते है यह तो उलटीसी बात मालूम होती है। दरअसल 'एतत्' तो उसीको कहना उचित था। हाँ, उसमे एक खतरा जरूर था। कृष्णके उपदेशके कैसे ? ?
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