गीता-हृदय "उसीको नीतिके बलसे सदाके लिये जीत लेना-उस विजयको स्थायी कर लेना--चाहता है, “दुरोदरक्षद्मजिता समीहते नयेन जेतु जगती सुयोधन" (११७)। कहनेका आशय यही है कि पाडवोकी जीत भी होगी और वह स्थायी भी हो जायगी। लक्ष्मी या सम्पत्ति और ऐश्वर्यमे अन्तर है । ऐश्वर्य व्यापक चीज है। शासनादि भी इसमे आ जाने है । भूतिका अर्थ विस्तार है, फैलाव है और हमने ऐश्वर्य इसीको कहा है । ध्रवा नीति कहनेसे कच्ची और बराबर बदलनेवाली दुर्योधनकी नीति घातक सिद्ध हो जाती है । चाहे जो हो। फिर भी नीति तो पक्की और स्थायी होनी चाहिये और गीताने उसीपर जोर दिया है। इस अध्यायका विषय मोक्षसन्यासयोग लिखा है। इससे स्पष्ट है कि सन्याससे ही शुरू करके अन्तमे भी सन्यास ही आया है और उसीके साथ मोक्ष भी। यो तो शुरूमें गीतामें दूसरे ढगके भी सन्यासका वर्णन आया है और अठारहवें अध्यायके शुरूमे भी उसीको सभी कर्मोके सदा त्यागके रूपमें लिखा है। मगर उससे मोक्ष तो होता नही । इसीलिये वह इस अध्यायका और गीताका भी विषय कभी हो नहीं सकता। हाँ, अन्तके ६६वें श्लोकमें मोक्षके साधनके रूपमें जिस सन्यासका वर्णन किया है वही गीताको मान्य है और वही इस अध्यायका विषय है। चौथे अध्यायमे भी सन्यास आया है। मगर एक तो वह जानके साथ आया है । दूसरे उस अध्यायका वही अकेला विषय नहीं है। हाँ, पाँचवेंका विषय सिर्फ मन्यास ही है। फिर भी यहाँ उसीको स्पष्ट कर दिया है कि उससे केवल ज्ञान ही नहीं होता, किन्तु मोक्ष भी मिलता है । इस प्रकार तीन अध्याय इस सन्यासके प्रतिपादनमे लगे है। इति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्याया योगशास्त्रे श्रीकृष्णा- र्जुनसवादे मोक्षसंन्यासयोगो नामाष्टादशोऽध्याय ॥१८॥
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