पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/९५

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८२ गीता-हृदय ? - न आये तो? आखिर बचन ही तो वह भी ठहरी और जव पहले या मूल के वचनो मे ही सन्देह की गुजाइश है तो बाद वाले (तूल या टोका के) वचनोमे भी क्यो न होगी ? यदि लेखककी ही बाते सुनके ही किसीने का लिखी और मौके-मौकेसे उनसे पूछ भी लिया था, तो भी इसका क्या सबूत है कि प्रश्नो का उत्तर ठीक ही मिला या उसने उसे ठीक ही समझा पूछने और उत्तर देने वालो का दिमाग बरावर ही ठीक रहा और उसमे कभी गडवडी न रही, यह भी कौन कहे ? कहते है कि पाणिनीय व्याकरणके सूत्रोपर जो पतञ्जलिका महा- भाष्य है उसकी टोका सबसे पहले कैयटने लिखी। उनके बारेमें कहा जाता है कि वरसो यह हालत रही कि जोई बात वह एक दिन लिखते थे उसीको अगले दिन गलत बताके काट देते और फिर नये सिरेसे लिखते थे। तीसरे दिन उसे भी काटके कुछ और ही लिखते । यही हालत वरावर रही । नतीजा यह हुआ कि हाथीके नहानेकी-सी इस हालतसे उन्हे सख्त अफसोस हुआ। वे खिन्न हो गये । नौवत यहाँतक पहुंची कि मरणासन्न दीखने लगे। उसपर उनकी माने सारी बाते जानके किसी अपने मित्रको बुलाया और उपाय पूछा । उसने रास्ता सुझाया कि कैयटको रातमे दही और उडद खिलाया जाय, तो इनकी बुद्धि मन्द हो जायगी। फिर तो जो भी एक बार लिखेगे उसकी भूल शायद ही सूझे और इस प्रकार जिस कामके पूरे न होनेकी चिन्तासे वे मर रहे है वह पूर्ण हो जायगा । यही किया गया और धोरे-धीरे वे स्वस्थ होने लगे। उधर टीका लिखनेमे प्रगति भी काफी हुई। जव कुछ दिनो वाद किसी मित्रने उनसे खुद उनकी हालत पूछी तो उनने उत्तर दिया कि "अब क्या पूछना है बुद्धिको ही चुरा लेनेवाले उडद खा रहा हूँ"-"अधुना शेमुषीमोषान्मा- पानश्नामि नित्यश यही वात औरोकी भी क्यो न होगी? फिर तो यदि रोज ही शास्त्र वदले तो? ? अब तो