कर्मका पचड़ा . ? और जब दो ग्रादमियोके भी सभी खयाल और विचार नहीं मिलते, तो फिर हजारोका क्या कहना ? ऐमा भी होता है कि एक ही आदमीके विचार समय पाके एक ही वातके सम्बन्धमे बदलते रहते है और कभी- कभी तो तीन-तीन चार-चार पलटे खा जाते है। तव अनेकोकी वात ही क्या ? इसीको कहते है "मुडे मुडे मतिभिन्ना" या "अपनी अपनी डफली, अपनी अपनी गीत"। महाभारत के वनपर्व के युधिष्ठिर-यज सम्वाद मे यही वात स्वीकार की गई है कि “एक मुनि ऋपि हो तो उनकी बात मानके काम चले । यहाँ तो अनन्त है--अनेक है "नकोऋषिर्यस्यवच प्रमाणम्" (३१२+११५)। आदमी की यह भी हालत होती है कि उसका दिमाग हमेगा स्वस्थ और एक हालतमे रहता ही नहीं। तो कव उससे वात जानी जाय, कब नही ? फिर दूरवर्तीको क्या मालूम कि कब उसका दिल-दिमाग ठीक है और उसने जब कहा था तव ठीक था या नहीं ? और अगर कही देरतक उसके दिमागमे गडवडी रही तो क्या हो ? दुनियाके काम तो उसकी गडबडीके लिये रुके रहेगे नही। और अगर इस दिक्कतसे बचने के लिये लिखित वचनो तथा आदेशो- की शरण ले, तो दूसरी पहेली खडी हो जाती है। जिन्दा आदमी तो साफ कन्ह-सुन देता है और अगर कोई बात समझमे न आये तो उससे पूछके सफाई भी कर ले सकते है। मगर मरेका क्या हो ? आखिर पुस्तको गौर गास्त्रोके वचन तो मरोके ही है न ? वे खुद तो वोल नहीं सकते। अगर किसी वचनका मतलब समझ न आये या उलटा हो समझमे आये तो क्या करे ? किससे पूछे ? यदि उसकी टीका-टिप्पणी देखे' तो और भा गजव हो । टीकाकार तो अाखिर दूसरे ही होग न ? फिर क्या मालूम कि उनने लेखकका अभिप्राय ठीक समझा या गलत ? यदि सद नेतकाने ही टीका की हो तो वात दूसरी है । मगर ऐसा होता तो शायद ही है । और अगर टीकामे भी कही शक हो या वही कही समझने . E
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