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गुप्त धन
 

गाते, पुष्प आदि की वर्षा करते चले आते थे। घाट पर पहुँचकर उन्होने अर्थी उतारी और चिता बनाने लगे। उनमें से एक युवक आकर चैतन्यदास के पास खड़ा हो गया। बाबू साहब ने पूछा––किस मुहल्ले में रहते हो?

युवक ने जवाब दिया––हमारा घर देहात में है। कल शाम को चले थे। ये हमारे बाप थे। हम लोग यहाँ कम आते हैं, पर दादा की अन्तिम इच्छा थी कि हमें मणिकर्णिका घाट पर ले जाना।

चैतन्यदास––ये सब आदमी तुम्हारे साथ हैं?

युवक––हाँ, और लोग पीछे आते हैं। कई सौ आदमी साथ आते हैं। यहाँ तक आने में सैकड़ों उठ गये पर सोचता हूँ कि बूढ़े पिता की मुक्ति तो बन गई। धन और है ही किसलिए।

चैतन्यदास––उन्हें क्या बीमारी थी?

युवक ने बड़ी सरलता से कहा, मानो वह अपने किसी निज सम्बन्धी से बात कर रहा हो––बीमारी का किसी को कुछ पता नहीं चला। हरदम ज्वर चढ़ा रहता था। सूखकर काँटा हो गये थे। तीन वर्ष तक खाट पर पड़े रहे। जिसने जहाँ बताया वहाँ लेकर गये। चित्रकूट, हरिद्वार, प्रयाग सभी स्थानों में ले-लेकर घूमे। वैद्यों ने जो कुछ कहा उसमे कोई कसर नहीं की।

इतने में युवक का एक और साथी आ गया और बोला––साहब, मुँह देखी बात नहीं, नारायण लड़का दे तो ऐसा दे। इसने रुपयों को ठीकरे समझा। घर की सारी पूँजी पिता की दवा-दारू में स्वाहा कर दी। थोड़ी-सी जमीन तक बेंच दी, पर काल बली के सामने आदमी का क्या बस है।

युवक ने गद्‌गद स्वर से कहा––भैया, रुपया-पैसा हाथ का मैल है। कहाँ आता है, कहाँ जाता है, मनुष्य नहीं मिलता। जिन्दगानी है तो कमा खाऊँगा। पर मन में यह लालसा तो नहीं रह गयी कि हाय! यह नहीं किया, उस वैद्य के पास नहीं गया, नहीं तो शायद बच जाते। हम तो कहते हैं कि कोई हमारा सारा घर-द्वार लिखा ले, केवल दादा को एक बोल बुला दे। इसी माया-मोह का नाम जिन्दगानी है, नहीं तो इसमे क्या रक्खा है? धन से प्यारी जान, जान से प्यारा ईमान। बाबू साहब, आपसे सच कहता हूँ, अगर दादा के लिए अपने बस की कोई बात उठा रखता तो आज रोते न बनता। अपना ही चित्त अपने को धिक्कारता। नहीं तो मुझे इस घड़ी ऐसा जान पड़ता है कि मेरा उद्धार एक भारी ऋण से हो गया। उनकी आत्मा सुख और शान्ति से रहेगी तो मेरा सब तरह कल्याण ही होगा।