स्वाँग
राजपूत खानदान मे पैदा हो जाने ही से कोई सूरमा नहीं हो जाता और न नाम के पीछे 'सिंह' की दुम लगा देने ही से बहादुरी आती है। गजेन्द्र सिह के पुरखे किसी ज़माने मे राजपूत थे इसमें सन्देह की गुजाइश नहीं। लेकिन इधर तीन पुश्तों से तो नाम के सिवा उनमे राजपूती के कोई लक्षण न थे। गजेन्द्र सिंह के दादा वकील थे और जिरह या बहस में कभी-कभी राजपूती का प्रदर्शन कर जाते थे। बाप ने कपड़े की दुकान खोलकर इस प्रदर्शन की भी गुजाइश न रखी और गजेन्द्र सिंह ने तो लुटिया ही डुबो दी। डील-डौल मे भी फर्क आता गया। भूपेन्द्र
सिंह का सीना लम्बा-चौड़ा था, नरेन्द्र सिह का पेट लम्बा-चौडा था, लेकिन गजेन्द्र सिंह का कुछ भी लम्बा-चौड़ा न था। वह हलके-फुलके, गोरे चिट्टे, ऐनकबाज़, नाजुक-बदन, फैशनेबुल बाबू थे। उन्हे पढ़ने-लिखने से दिलचस्पी थी।
मगर राजपूत कैसा ही हो उसकी शादी तो राजपूत खानदान ही में होगी। गजेन्द्र सिंह की शादी जिस खानदान मे हुई थी, उस खानदान में राजपूती जौहर बिलकुल फ़ना न हुआ था। उनके ससुर पेशनर सूबेदार थे। साले शिकारी और कुश्तीबाज़। शादी हुए दो साल हो गये थे, लेकिन अभी तक एक बार भी ससुराल न आ सका। इम्तहानों से फुरसत ही न मिलती थी। लेकिन अब पढ़ाई खतम हो चुकी थी, नौकरी की तलाश थी। इसलिए अबकी होली के मौके पर ससुराल से बुलावा आया तो उसने कोई हीला-हुज्जत न की। सूबेदार की बड़े-बड़े अफसरो से जान-पहचान थी, फौजी अफसरो की हुक्काम कितनी कद्र और कितनी इज्जत करते है, यह उसे खूब मालूम था। समझा, मुमकिन है, सूबेदार साहब की सिफारिश से नायब तहसीलदारी में नामजद हो जाय। इधर श्यामदुलारी से भी साल भर से मुलाकात न हुई थी। एक निशाने से दो शिकार हो रहे थे। नया रेशमी कोट बनवाया और होली के एक दिन पहले ससुराल जा पहुँचा। अपने गराण्डील सालो के सामने बच्चा-सा मालूम होता था।
तीसरे पहर का वक़्त था, गजेन्द्र सिंह अपने सालों से विद्यार्थी काल के कारनामे बयान कर रहा था। फुटबाल में किस तरह एक देव जैसे लम्बे-तड़गे गोरे