मुसलमानो मे तकसीम होना चाहिए था। पर तुम ईमानदार आदमी हो, इसलिए तुम्हारे साथ इतनी रिआयत की गयी।
जैनब दरवाजे के पास आड मे बैठी हुई थी। हजरत का यह फैसला सुनकर रो पडी, तब घर से बाहर निकल आयी और अबुलआस का हाथ पकडकर बोली--अगर मेरा शौहर गुलाम है तो मैं उसकी लौडी हूॅ। हम दोनो साथ बिकेगे या साथ कैद होंगे।
हज़रत--जैनब, मुझे लज्जित मत करो, मैं वही कर रहा हूॅ जो मेरा कर्तव्य है; न्याय पर बैठनेवाले मनुष्य को प्रेम और द्वेष दोनो ही से मुक्त होना चाहिए। यद्यपि इस नीति का सस्कार मैने ही किया है, पर अब मै उसका स्वामी नही, दास हूँ। अबुलआस से मुझे जितना प्रेम है यह खुदा के सिवा और कोई नहीं जान सकता। यह हुक्म देते हुए मुझे जितना मानसिक और आत्मिक कष्ट हो रहा है उसका अनुमान हर एक पिता कर सकता है। पर खुदा का रसूल न्याय और नीति को अपने व्यक्तिगत भावो से कलकित नहीं कर सकता।
सहाबियो ने हजरत की न्याय-व्याख्या सुनी तो मुग्ध हो गये। अबूजफर ने अर्ज की--हजरत, आपने अपना फ़ैसला सुना दिया, लेकिन हम सब इस विषय में सहमत है कि अबुलआस जैसे प्रतिष्ठित व्यक्ति के लिए यह दण्ड न्यायोचित होते हुए भी अति कठोर है और हम सर्वसम्मति से उसे मुक्त करते है और उसका लूटा हुआ धन लौटा देने की आज्ञा माॅगते है।
अबुलआस हजरत मुहम्मद की न्यायपरायणता पर चकित हो गये। न्याय का इतना ऊॅचा आदर्श! मर्यादा का इतना महत्व! आह, नीति पर अपना सन्तान-प्रेम तक न्यौछावर कर दिया! महात्मा, तुम धन्य हो। ऐसे ही ममता-हीन सद्पुरुषो से ससार का कल्याण होता है। ऐसे ही नीतिपालको के हाथो जातियाँ बनती है, सभ्यताएँ परिष्कृत होती है।
मक्के आकर अबुलआस ने अपना हिसाब-किताब साफ़ किया, लोगों के माल लौटाये, ऋण चुकाये, और घर-बार त्यागकर हजरत मुहम्मद की सेवा मे पहुॅच गये।
जैनब की मुराद पूरी हुई।
—सरस्वती, मार्च १९२४