पृष्ठ:गुप्त-धन 2.pdf/२३९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
देवी
२४५
 


ठाकुर ने चौककर तुलिया की ओर देखा। उसी वक़्त तुलिया का अचल खिसक गया और नीचे की लाल चोली झलक पडी। उसने झट अचल सम्हाल लिया, पर उतावली मे जूड़े में गुंथी हुई फूलो की बेनी बिजली की तरह आँखो में कौद गयी। गिरधर का मन चचल हो उठा। आँखों मे हल्का-सा नशा पैदा हुआ और चेहरे पर हल्की-सी सुखी और हल्की-सी मुस्कराहट। नस-नस में संगीत-सा गूंज उठा।

उसने तुलिया को हजारों बार देखा था, प्यासी आँखों से, ललचायी आँखों से, मगर तुलिया अपने रूप और सत् के घमण्ड में उसकी तरफ कभी आँखे तक न उठाती थी। उसकी मुद्रा और ढंग में कुछ ऐसी रुखाई, कुछ ऐसी निठुरता होती थी कि ठाकुर के सारे हौसले पस्त हो जाते थे, सारा शौक ठण्डा पड़ जाता था। आकाश में उड़नेवाले पछी पर उसके जाल और दाने का क्या असर हो सकता था? मगर आज वह पछी सामनेवाली डाली पर आ बैठा था और ऐसा जान पड़ता था कि भूखा है। फिर वह क्यों न दाना और जाल लेकर दौडे।

उसने मस्त होकर कहा—मैं पहुँचाये देता हूँ तुलिया, तू क्यो सिर पर उठायेगी।

'और कोई देख ले तो यही कहे कि ठाकुर को क्या हो गया है?'

'मुझे कुत्तों के भूकने की परवा नहीं है।'

'लेकिन मुझे तो है।'

ठाकुर न माना। गट्ठा सिर पर उठा लिया और इस तरह आकाश में पॉव रखता चला भानो तीनो लोक का खजाना लूटे लिये जाता हो।

एक महीना गुज़र गया। तुलिया ने ठाकुर पर मोहिनी डाल दी थी और अब उसे मछली की तरह खेला रही थी। कभी बसी ढीली कर देती, कभी कड़ी। ठाकुर शिकार करने चला था, खुद जाल में फंस गया। अपना ईमान और धर्म और प्रतिष्ठा सब कुछ होम करके वह देवी का वरदान न पा सकता था। तुलिया आज भी उससे उतनी ही दूर थी जितनी पहले।

एक दिन वह तुलिया से बोला—इस तरह कब तक जलायेगी तुलिया। चल कही भाग चले।

तुलिया ने फदे को और कसा—हाँ, और क्या। जब तुम मुंह फेर लो तो कहीं की न रहूँ। दीन से भी जाऊँ, दुनिया से भी!