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गुप्त धन
 


भयंकर नाग महुअर का सुरीला राग सुनकर मस्त हो गया हो। उसी सच्चे सूरमा की कुल-मर्यादा आज सकट में है। क्या तुलिया उस मर्यादा को लुटने देगी और कुछ न करेगी? नहीं-नहीं! अगर बसीसिंह ने उसके सत् को अपने प्राणों से प्रिय समझा तो वह भी उसकी आबरू को अपने धर्म से बचायेगी।

उसने ठकुराइन को तसल्ली देते हुए कहा—अभी तुम कही मत जाओ बहिन, पहले मुझे अपनी शक्ति आज़मा लेने दो। मेरी आबरू चली भी गयी तो कौन हँसेगा। तुम्हारी आबरू के पीछे तो एक कुल की आबरू है।

ठकुराइन ने मुस्कराकर उसको देखा। बोली—तू यह कला क्या जाने तुलिया?

'कौन-सी कला?'

'यही मर्दो को उल्लू' बनाने की।'

'मैं नारी नहीं हूँ?'

'लेकिन पुरुषों का चरित्र तो नही जानती?'

'यह तो हम-तुम दोनों माँ के पेट से सीखकर आयी है।'

'कुछ बता तो क्या करेगी?'

'वही जो तुम करने जा रही हो। तुम परगने के हाकिम पर अपना जादू डालना चाहती हो, मै तुम्हारे देवर पर जाल फेकूगी।'

'बडा घाघ है तुलिया।

'यही तो देखना है।'

तुलिया ने बाकी रात कार्यक्रम और उसका विधान सोचने में काटी। कुशल सेनापति की भाँति उसने धावे और मार-काट की एक योजना-सी मन में बना ली। उसे अपनी विजय का विश्वास था। शत्रु निश्शक था, इस धावे की उसे जरा भी खबर न थी।

बसीसिंह का छोटा भाई गिरधर कंधे पर छ. फीट का मोटा लट्ठ रखे अकड़ता चला आता था कि तुलिया ने पुकारा—ठाकुर, तनिक यह घास का गट्ठा उठाकर मेरे सिर पर रख दो। मुझसे नहीं उठता।

दोपहर हो गया था। मजदूर खेतों से लौटकर आ चुके थे। बगूले उठने लगे थे। तुलिया एक पेड़ के नीचे घास का गट्ठा रखे खड़ी थी। उसके माथे से पसीने की धार बह रही थी।