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गुप्त धन
 

में काफी तजुर्बेकार थे। उनसे जिक्र आया तो उन्होंने एक बकरी की ऐसी स्तुति गायी, उसका ऐसा कसीदा पढ़ा कि मैं बिन देखे ही उसका प्रेमी हो गया। पछाँही नसल की बकरी है, ऊँचे कद की, बड़े-बड़े थन जो जमीन से लगते चलते है। बेहद कमखोर लेकिन बेहद दुधार। एक वक्त में दो-ढाई सेर दूध ले लीजिए।अभी पहली बार ही बियाई है। पच्चीस रुपये मे आ जायगी। मुझे दाम कुछ ज्यादा मालूम हुए लेकिन पडितजी पर मुझे एतबार था। फरमाइश कर दी गयी और तीसरे दिन बकरी आ पहुँची। मै देखकर उछल पड़ा। जो-जो गुण बताये गये थे उनसे कुछ ज्यादा ही निकले। एक छोटी-सी मिट्टी की नांद मँगवायी गयी, चोकर का भी इन्तजाम हो गया। शाम को मेरे नौकर ने दूध निकाला तो सचमुच ढाई सेर। मेरी छोटी पतीली लबालब भर गयी थी। अब मूसलों ढोल बजायेगे। यह मसला इतने दिनों के बाद जाकर कही हल हुआ। पहले ही यह बात सूझती तो क्यों इतनी परेशानी होती। पडितजी का बहुत-बहुत शुक्रिया अदा किया। मुझे सबेरे तड़के और शाम को उसके सीग पकड़ने पड़ते थे तब आदमी दुह् पाता था। लेकिन यह तकलीफ इस दूध के मुकाबले मे कुछ न थी। बकरी क्या है, कामधेनु है। बीवी ने सोचा इसे कही नजर न लग जाय इसलिए उसके थन के लिए एक गिलाफ़ तैयार हुआ, उसकी गर्दन में नीले चीनी के दानों का एक माला पहनाया गया। घर मे जो कुछे जूठा बचता, देवी जी खुद जाकर उसे खिला आती थीं।

लेकिन एक ही हफ्ते में दूध की मात्रा कम होने लगी। जरूर नजर लग गयी। बात क्या है। पण्डित जी से हाल कहा तो उन्होने कहा -- साहब, देहात की बकरी है, जमीन्दार की ! बेदरेग अनाज खाती थी और सारे दिन बाग मे धूमा-चरा करती थी। यहाँ बेधे-बँधे दूध कम हो जाये तो ताज्जुब नहीं। इसे जरा टहला दिया कीजिए।

लेकिन शहर में बकरी को टहलाये कौन और कहाँ ? इसलिए यहहुआ कि बाहर कहीं मकान लिया जाय। वहाँ बस्ती से जरा निकलकर खेत और बाग होंगे, कहार घण्टे-दो घण्टे टहला लाया करेगा। झटपट मकान बदला और गो कि मुझे दफ्तर आने-जाने में तीन मील का फ़ासला तय करना पड़ता था लेकिन अच्छा दूध मिले तो मैं इसका दुगना फासला तय करने को तैयार था। यहाँ मकान खूब खुला हुआ था, मकान के सामने सहन था, जरा और बढ़कर आम और महुए वगैरह का बाग । बाग से निकलिए तो काछियों के खेत थे, किसी में