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तमा पर अमल करती और रोज-ब-रोज अभ्यास बढ़ाती जाती थी। वह उस दिन का इन्तजार कर रही थी जब वह अपने पति की आत्मा को बुलाकर उससे खूनी का सुराग लगा सकेगी। वह बड़ी लगन से, बड़ी एकाग्रचित्तता से अपने काम में व्यस्त थी। रात के दस बज गये थे। माया ने कमरे को अंधेरा कर दिया था और तिलोत्तमा पर अभ्यास कर रही थी। यकायक उसे ऐसा मालूम हुआ कि कमरे में कोई दिव्य व्यक्तित्व' आया । बुझते हुए दीपक की अन्तिम झलक की तरह एक रोशनी नजर आयी।

माया ने पूछा—आप कौन हैं?

तिलोत्तमा ने हँसकर कहा—तुम मुझे नहीं पहचानती? मै ही तुम्हारा मनमोहन हूँ जो दुनिया में मिस्टर व्यास के नाम से मशहूर था।

'आप खूब आये। मैं आपसे खूनी का नाम पूछना चाहती हूँ।'

'उसका नाम है, ईश्वरदास।'

'कहाँ रहता है?'

'शाहजहाँपुर।'

माया ने मुहल्ले का नाम, मकान का नम्बर, सूरत-शकल, सब कुछ खूब विस्तार के साथ पूछा और एक कागज पर नोट कर लिया। तिलोत्तमा जरा देर में उठ बैठी। जब कमरे में फिर रोशनी हुई तो माया का मुरझाया हुआ पीला चेहरा विजय की प्रसन्नता से चमक रहा था। उसके शरीर में एक नया जोश लहरे मार रहा था कि जैसे प्यास से मरते हुए मुसाफ़िर को पानी मिल गया हो। उसी रात को माया ने लाहौर से शाहजहाँपुर जाने का इरादा किया।

रात का वक्त, पंजाब मेल बड़ी तेजी से अंधेरे को चीरती हुई चली जा रही थी। माया एक सेकेण्ड क्लास के कमरे मे बैठी सोच रही थी कि शाहजहांपुर में वह कहाँ ठहरेगी, कैसे ईश्वरदास का मकान तलाश करेगी और कैसे उससे खून का बदला लेगी। उसके बगल मे तिलोत्तमा बेखबर सो रही थी। सामने ऊपर के बर्थ पर एक आदमी नींद में गाफिल पड़ा हुआ था।

यकायक गाड़ी का कमरा खुला और दो आदमी कोट-पतलून पहने कमरे में दाखिल हुए। दोनो अग्रेज़ थे। एक माया की तरफ बैठा और दूसरा दूसरी तरफ़। माया सिमटकर बैठ गयी। इन आदमियों का यो बैठना उसे बहुत बुरा मालूम