को कुछ खाने को न दूँगी। कपडे के इन्तजार में बैठी हुई औरत उसकी राह देखते-देखते थक जाती और गुस्से मे तालाब की तरफ जाती तो रास्ते में कपड़े पडे हुए मिलते। तब वह भी उसे गालियाॅ देकर कहती, आज से इसको कुछ खाने को न दूंगी। इस तरह मुन्नी को कभी-कभी कुछ खाने को न मिलता और तब उसे बचपन याद आता, जब वह कुछ काम न करती थी और लोग उसे बुलाकर खाना खिला देते थे। वह सोचती किसका काम न करूॅ, जिसे जवाब दूँ वहीं नाराज़ हो जायगा। मेरा अपना कौन है, मै तो सब की हूँ। उस गरीब को यह न मालूम था कि जो सब का होता है वह किसी का नहीं होता। वह दिन कितने अच्छे थे, जब उसे खाने-पीने की और किसी की खुशी या नाखुशी की परवाह न थी। दुर्भाग्य में भी बचपन का वह समय चैन का था।
कुछ दिन और बीते, मुन्नी जवान हो गयी। अब तक वह औरतो की थी, अब मर्दो की हो गयी। वह सारे गॉव की प्रेमिका थी पर कोई उसका प्रेमी न था। सब उससे कहते थे--मै तुम पर मरता हूँ, तुम्हारे वियोग मे तारे गिनता हूँ, तुम मेरे दिलोजान की मुराद हो, पर उसका सच्चा प्रेमी कौन है, इसकी उसे खबर न होती थी। कोई उससे यह न कहता था कि तू मेरे दुख-दर्द की शरीक हो जा। सब उससे अपने दिल का घर आबाद करना चाहते थे। सब उसकी निगाह पर, एक मद्धिम-सी मुस्कराहट पर कुर्बान होना चाहते थे; पर कोई उसकी बाँह पकड़नेवाला, उसकी लाज रखनेवाला न था। वह सब की थी, उसकी मुहब्बत के दरवाज़े सब पर खुले हुए थे; पर कोई उस पर अपना ताला न डालता था जिससे मालूम होता कि यह उसका घर है, और किसी का नहीं।
वह भोली-भाली लड़की जो एक दिन न जाने कहाँ से भटककर आ गयी थी, अब गाँव की रानी थी। जब वह अपने उन्नत वक्षो को उभारकर रूप-गर्व से गर्दन उठाये, नजाकत से लचकती हुई चलती तो मनचले नौजवान दिल थामकर रह जाते, उसके पैरो तले आँखे बिछाते। कौन था जो उसके इशारे पर अपनी जान न निसार कर देता। वह अनाथ लड़की जिसे कभी गुड़ियाँ खेलने को न मिली, अब दिलों से खेलती थी। किसी को मारती थी, किसी को जिलाती थी, किसी को ठुकराती थी, किसी को थपकियाँ देती थी, किसी से रूठती थी, किसी को मनाती थी। इस खेल मे उसे क़त्ल और खून का-सा मजा मिलता था। अब पांसा पलट गया था। पहले वह सबकी थी, कोई उसका न था; अब सब उसके थे, वह किसी की न थी। उसे जिस चीज़ की तलाश थी, वह कहीं न मिलती थी।