मौलवी मुहम्मद हुसेन आज़ाद देता है । “मियां ! यह थान कितनेको बेचोगे ? हजूर ! दो-ढाई रुपयेको बिकेगा। इस काममें क्या रहा ? जबसे कलका कपड़ा चला है, इसे टके गज़ कोई नहीं लेता। अब तो नैनं लढेकी क़दर है। एक दिन वह था कि हमारे हाथके कपड़े बड़े-बड़े अमीर पहिनते थे। एक दिन यह है कि गरीब भी नहीं पूछते । क्या करें ? अपने दिन पूरे करते हैं, कमती बढ़ती बेच ही डालते हैं । सुनो-हिम्मत न हारो मेहनत किये जाओ-बहुत न सही, थोड़ा हो सही । तुम्हारा काम बहुत अच्छा है। गरीबोंके तन ढकते हैं। अमोरोंके भी काम निकलते हैं। वह आप नहीं पहिनते, पर उनके सायबान परदे, कनात और तम्बू बनते हैं।" ___ इसी तरह उर्दूकी पहली किताब भरमें कहीं आप बनियेकी दुकानके मामने हैं, कहीं कुआं चलता है, देख रहे हैं। कहीं कुछ और कहीं कुछ और कर रहे हैं। देहलोकी बोल-चाल देहलीके साफ़ सीधे मुहावरे और वहाँका रोज मरा, और लुत्फ यह कि वहाँके छोटे-छोटे बच्चोंकी बोली और उनके खयालात किस तरह और किस मेहनतसे आजादने देहलीकी उद्दे पंजावियोंको सिखाई है। यह बात सब लोग कहाँ जानते होंगे। इसीसे राकिमने अलीफ़, छ. से उनकी बात उठाई। नाज़रीन इसे फ़जूल न समझ बैठ। ___ जहां जिसका बयान किया है, उसकी तसवीर खींच दी है। देखिये तो गरीब जुलाहेको हालत कितनी खूबसूरतीसे दिखाई है। आज अगर हज़रत आज़ादको खबर होती कि स्वदेशी तहरीककी बदौलत उनके गरीब जुलाहेके दिन फिरे हैं, और आपने जो उसे हिम्मत दिलाई थी, कि मेहनत किये जाओ ; उसका उसे फल मिला है । वह कितने खुश होते ? ___ अब उर्दूकी दूसरी कितावमेंसे कुछ नमूना देखिये। बच्चा आज़ाद चिऊँटी देख रहा है । सुनिये क्या कहता जाता है । क्या नन्हीं-मी जान है। क्या हिम्मत है । अपनेसे दुगना बोझ उठाती है । न हिम्मतसे मुंह मोड़ती [ १०१ ।
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