हिन्दी-भाषाकी भूमिका मुसलमानी अमलदारीमें इस भाषामें केवल फारसी कविताके ढङ्ग- की कविताही होती रही। गद्यको उम समय तक कुछ जरूरत न पड़ी। जब अंग्रजोंके पांव इस देशमें जम गये और मुसलमानी राज्यका चिराग ठंडा होने लगा, तब इम भापामें गद्यको नीव पड़ी। गद्यकी पहली पोथी सन १७६८ ई. में लिग्बी गई। सन १८०२ ई० में जब दिल्लीमें “बागोबहार” नामकी पोथी नय्यार हुई तो गद्यकी चर्चा कुछ बढ़ी। यहांतक कि हिन्दुओंका भी इधर ध्यान हुआ। कविवर लल्ल लालजी आगरा निवासीने अगलही वर्ष सन १८०३ ई० में प्रममागर लिखा। मुसलमान लोग अपनी पोथियां फारसी अक्षरों में लिग्बते थे लल्ल लालजीने देवनागरी अक्षरोंमें अपनी पोथी लिखी। पर दुःश्वकी बात है, लल्लजीके पीछे बहुत काल तक ऐसे लोग उत्पन्न न हुए जो उनके दिखाये मार्गपर चलते और उनके किये हुए कामकी उन्नति करते । इसीसे उनका काम जहाँका तहां रह गया। देवनागरी अक्षरों में प्रमसागरक ढङ्गकी नई-नई रचनाएं करनेवाले लोग साठ साल तक फिर दिखाई न दिये। अक्षरों वाले उन्नति करते गये। गद्यमें उन्हों ने और भी कितनीही पोथियां लिखीं। पीछे सन १८३५ ई० में उनके सौभाग्यसे सरकारी दफ्तरों में फारसी अक्षरों के साथ हिन्दी जारी हुई। इससे नागरी अक्षरों को बड़ा धक्का पहुंचा। उनका प्रचार बहुत कम हो चला। जो लोग नागरी अक्षर सीखते थे, वह फारसी अक्षर सीखने पर विवश हुए। फल यह हुआ कि हिन्दी-भाषा न रह कर उर्दू बन गई। हिन्दी उस भाषाका नाम रहा जो टूटी-फूटी चालपर देवनागरी अक्षरों में लिखी जाती थी। न वह नियम पूर्वक सीखी जाती थी और न उसके लिखनेका कोई अच्छा ढङ्ग था। कविता करनेवाले ब्रजभाषामें कविता करते हुए पुरानी चालपर चले जाते थे, जो अब भी एकदम बन्द नहीं होगई है। गद्य या तो आपसकी चिट्ठी पत्रियों में । १०७ ]
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