गुप्त-निबन्धावली राष्ट्र-भाषा और लिपि घुस जानेपर भी चन्दकी भाषा स्वच्छ और सरल नहीं है। वह इतनी उखड़ी हुई और लक्कड़तोड़ है कि मानो चन्द उसे उसी समय कहींसे तोड़ ताड़ कर बनाता था और कविताके काममें लगाता था। यही कारण है कि आजकल उसके समझने में बड़ी कठिनाई पड़ती है। उसकी भाषामें तीन प्रकारके नमूने मिलते हैं। एक संस्कृतके ढङ्गको भाषा है जो पढ़ने में संस्कृतहीसी मालूम पड़ती है, पर अशुद्ध है और उसमें हिन्दी मिली हुई है। यथा- स्वस्ति श्री राजंग राजन वरं धम्माधि धम्म गुरुं । इन्द्रप्रस्थ सुइन्द्र इंद समयं राजं गुरं वर्तते । अरदास तत्तारखान लिग्वियं सुलतान मोक्षं करं। तुम बड्डे बड्डाइ राजन सुरं राजाधिपोराजनं । यह एक अर्जी है जो तातारखांने शहाबुद्दीनको मुक्त करानेके लिये पृथिवीराजको लिग्वी थी, निरी दिल्लगी जान पड़ती है। हंसानेके लिये स्वर्गीय पण्डित प्रतापनारायण मिश्रने एक कविता "महा संस्कृतकी कविता” के नामसे लिखी थी । वह इससे खूब मिलती है। नमूना लीजिये- कूदतं झंड झंडं घरघर घुसनं ग्वापर फोड़यन्तम् । ___ जूठबच्चा समेतं दंत नग्ब कटतं कूकरां डपृयंतम् । अर्जदाश्तको अरदास बनाकर संस्कृत करनेके लिये अरदासं कर लिया है। लिखियं और भी बढ़कर है और अन्तमें तो “बड्डु बड्डाइ" लिखकर रही सही कसर मिटादी है। पर हंसनेसे क्या होगा, वह नकली नहीं, असली भाषा थी। मेवाड़ और मारवाड़के कवि अबतक भी इस ढङ्गकी भाषामें कविता करते हैं। अस्तु, इस भाषासे भी यह पता लगता है कि संस्कृत किस प्रकार टूट फूट कर हिन्दी बनती जाती थी। दूसरी प्राकृतके ढङ्गकी भाषा है। उसमें धम्म, कम्म, आदि शब्द हैं। [ ११८ ]
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