गुप्त-निबन्धावली संवाद-पत्रोंका इतिहास सत्कार करना चाहिये। हम लोगोंको अब तक कुछ निश्चय नहीं कि हिस्दुस्तानी लोगोंने क्या क्या सोचा है और क्या क्या करेंगे। भला कलकत्ते इत्यादि जो बड़े बड़े नगर हैं उनमें तो कुछ होगा वह होयेगा, बड़ोंकी बड़ी बात है। हम उसमें क्या बोलें, पर बनारसमें क्या होगा इसकी हमैं निस्सन्देह चिन्ता है। सुना है कि श्रीयुत् शेरिङ्ग साहबने एक फिहरिस्त बनाई है जिसमें उन्होंने बहुतसी बातें लिखी हैं। उनकी इच्छा है, कुमारको हिन्दुस्तानी तमाशे दिखलाये जायं। श्रीबाबू माधो दासजीकी अनुमति है कि मङ्गलका मेला हो। हमलोग इस विषयमें जो जो सोचते हैं वह प्रकाश करते हैं। और हमारे नगरस्थ वा विदेशस्थ पाठक और जो सोचेंगे हम उनको यथावकाश प्रकाश करेंगे।" सन १८८० ई० में इस पत्रका आकार दूना हो गया था। अर्थात् डिमाइ एक शीटकी जगह दो शीट पर छपने लगा था। पर तभीसे इसकी बेरौनकी शुरू होगई थी और वह दशा इसके बन्द होने तक बनी रही। अलमोड़ा अखबार इससे पहले दो लेखोंमें हम कविवचनसुधाकी बात कह चुके हैं। वही पत्र हिन्दी अखबारोंके लिये पथ प्रदर्शक था। उसीको देखकर हिन्दीवालोंने जाना था कि समाचारपत्र क्या होता और उससे क्या लाभ है । फल यह हुआ कि कविवचनसुधाके जारी होनेके तीन साल बाद अलमोडासे "अलमोड़ा अग्वबार" निकला । आश्चर्य है कि जिन शहरों- की हिन्दी भाषा है, जिनमें अच्छी हिन्दी बोलनेवाले बहुत लोग रहते हैं, उनमेंसे कोई हिन्दी अखवार न निकला, पर अलमोडासे एक अखबार निकला-जहांके लोग सीधी हिन्दी बोलना नहीं जानते। इसका एक बड़ा मर्मभेदी कारण था। अच्छी हिन्दीके स्थानों में नागरी अक्षरोंका प्रचार एक दम बन्द होगया था। अलमोड़में पहाड़ी ब्राह्मणोंके प्रसादसे [ ३२४ ]
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