पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/३५

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गुप्त-निबन्धावली चरित-पर्चा गमायण हिन्दीमें छन्दोबद्ध करके डाल गये हैं। प्रहसन लिखनेमें वह बड़े प्रवीण थे। उन्होंने कई एक प्रहमन लिग्वे । उनमेंसे हमने केवल "जयनारसिंहकी" देखा है। और एक ग्रहसन उनका अधूरा था, उसका नाम था “सबके गुरु गोबर्द्धनदास । पण्डित प्रतापनारायण उसकी बड़ी प्रशंसा किया करते थे और उसके एक गीतको बड़ा आनन्द ले-लेकर गाया करते थे। पण्डित मदनमोहन मालवीयने एक दिन कहा था कि हिन्दीमें नाटक लिखना पण्डित देवकीनन्दनजीसे सोखना चाहिये । मुना है कि नाट्यपत्रमें उन्होंने 'गुरु गोबर्द्धनदास' वाला प्रहसन पूरा किया है और दूसरे कई प्रहसन आदि लिखे हैं। प्रयागमें उनकी बनाई और भी कितनीही चीज हैं। हिन्दी-हिनैषियोंका कर्तव्य है कि उनका पता लगाव और उनकी रक्षाका उपाय सोच। थोड़ीमी चेष्टासे वह इन सब लुप्त होते हुए रत्नोंका उद्धार कर सकते हैं। "जयनारसिंहकी" एक प्रान्तीय प्रहसन है। प्रान्तीयही उसकी भाषा रखी गई। झाड़-फंक करनेवाले और उनके मुर्ख लालची और ठग चेले कैसे बोलते हैं, देहातकी भले घरकी स्त्रियोंकी कैसी बोली है, देहातकी द ई और मजदूरनियाँ कैसे बोलती हैं, इसका इस प्रहसनमें बड़ा ध्यान रखा गया है। भापा, भाव और प्लाट, तीनोंके लिहाजसे यह प्रहसन इतना सुन्दर हुआ है, कि हिन्दीमें उसका सानी मिलना कठिन है। हिन्दी लिखनेवालोंपर कुछ लोग इलजाम लगाते हैं कि वह अधिकतर बङ्गभाषाकी पोथियोंसे चोरी और तरजमा करते हैं, पर जो लोग तिवारीजोके इस प्रहसनको ध्यानसे देखेंगे, वह कहेंगे कि वह अछूता है और बङ्गभाषामें भी कोई उस ढङ्गका उतना सुन्दर प्रहसन नहीं है। तिवारीजीमें यह गुण था कि सदा अपने खयालसे काम लेते थे। दूसरे हिन्दी-लेखक उनकी चालकी पैरवी करें तो हिन्दीकी बहुत कुछ इज्जत बढ़ा सकते हैं और नेकनामी पा सकते हैं। [ १८ ]