पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/३९४

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हिन्दी-अखबार धर्म सम्बन्धी बातोंमें मतभेद होनेसे कई बार उक्त पत्रने हिन्दोस्थान आदि पत्रांसे झगड़ा भी किया हैं। खेती और कारीगरीके विषयमें उन दिनों कई एक लेख अच्छे निकले थे। चुटकलं, पहेली, हँसी दिल्लगी- की बातं उसमें होती थीं। पुस्तकोंकी समालोचना भी खासी होती थी। विशेषकर हिन्दू-धर्मके विरुद्ध पोथियोंका अच्छा खण्डन होता था। उन दिनोंमें उसका मोटो यह था- ईशः सुखयतु लोकान विहाय कपटानि ते भजनत्वीशम् । श्रयतु खलोपि सुजन्ता सोपिस्वीकार तु सर्वहितम ॥ इमका मूल्य सर्वसाधारणसे १J और विद्यार्थियों तथा सभाओंसे 12) डाक महसूल सहित था। इस पत्रकी एक सचाईकी प्रशंसा करनी चाहिये कि यह प्रतिवार २४० छपता था और वही संख्या उसके पहले पृष्ठके सिरेपर लिखी रहती थी। अखबारवालोंमें और दोप चाहे कुछ हो या न हो, पर यह दोष अवश्य है कि बड़ी सचाईका घमण्ड रखनेवाले अखबारवाले भी अपने अखबारके छपनेकी संख्या असलसे दुगुनी-तिगुनी ही नहीं, चौगुनी तक बता बैठते हैं। यह पत्र उस दोषसे रहित था और अपनी थोड़ी संख्याको प्रकाश करनेमें किसी तरहकी लज्जा नहीं समझता था। किन्तु एक दोपसे यह भी रहित न था- अर्थात् जिन पत्रोंसे लेख आदि उद्धृत करता था, उनके नाम पूरे न देकर संकेतमें देता था। दूसरे अखबारोंकी नकलसे यह दोप उसमें भी आया था। सारांश यह कि पण्डित लज्जारामजीके समयमें सर्वहित रूपमें अच्छा न होनेपर भी गुणमें अच्छा था। यदि इसका रूप देखकर ही उस समयके पाठकांने उसे फेक न दिया होगा तो वह उसे पढ़कर अवश्य प्रसन्न हुए होंगे। वही पण्डित लज्जाराम पीछे बम्बईके "श्रीवेङ्कटेश्वर समाचार"के सम्पादक हुए। बाबू राधाकृष्ण दासने अपने सामयिक हिन्दी पत्रोंके इतिहासमें सर्वहितके सम्पादकोंमें पण्डित [ ३७७ ]