पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/४०२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

हिन्दी-अखबार मेम्बर बाबू संसारचन्द्र सेन आदि सजन उक्त गजटमें अपना लेख देते थे। पीछे मथुरावाले पण्डित श्यामलालजीका प्रबन्ध हुआ। तब भी पुराने लेखक उसमें लिखते थे। कुछ दिन पीछे महाराज रामसिंहजीने आज्ञा दी कि गजट अंगरेजी हिन्दी और उर्दू तीन भाषाओंमें निकला करे। तबसे आज तक वह बराबर उक्त तीनों भाषाओंमें निकलता चला आता है। उस समय इस पत्रको दशा अच्छी थी और ग्राहक संख्या भी खासी थी। क्योंकि महाराज रामसिंहजीकी आज्ञा थी कि रियासतके सब जागीरदार उसे अवश्य खरीदें। तब तक प्रेसका प्रबन्ध रियासतके हाथमें था। पीछे खगीय दीवान ठाकुर फतहसिंहजीने प्रेसका ठीका दे दिया। उसके अनुसार मुंशी महावीरप्रसाद प्रेसके प्रबन्धकर्ता हुए । पत्र बराबर तीनों भाषाओंमें अर्द्ध साप्ताहिक निकलता रहा। पर उसका वह दौर-दौरा न रहा। पत्रमें इधर उधरके उर्दू अखबारोंकी नकल होने लगी। गम्भीर लेखोंका अभाव हुआ। आगे चलकर प्रेसका ठीका तो मुंशी महावीरप्रसादके पासही रहा, पर प्रबन्ध उनके भाई कृष्णवल्लभ करने लगे। वह भी उसी पुरानी चालसे पत्रको चलाते रहे और उसकी दशा गिरती रही । जो जागीरदार “जयपुर गजट” खरीदते थे, वह धीरे धीरे प्राहकोंमेंसे नाम कटाने लगे। पत्रकी बहुत खराब दशा हो गई। कई सालसे वही दशा चली आती है। पढ़े-लिखे आदमी उसे छूते तक नहीं। नामको पत्र निकल रहा है। पन्द्रह सोलह साल हुए उक्त पत्र हमने देखा था। इस समय अनुमान किया था कि बन्द होगया होगा। किन्तु पता लगाने पर जान पड़ा कि अभी उक्त पत्र जीवित है। जय- पुर शहर दूसरी दूसरी बातोंमें जिस प्रकार पुरानी लकीरका फकीर है, वैसा ही जयपुर गजट भी पुराने फैशनके हाथ बिका हुआ है। न उसका कोई ठीक सम्पादक है, न कोई लेखोंसे उसकी सहायता करनेवाला है । [ ३८५ ] २५