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पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/४२०

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हिन्दी-अखबार ष्ठित गिना जाने लगा था। बाबू हरिश्चन्द्र तब बहुत कुछ प्रतिष्ठा पा- चुके थे और हिन्दीके लिये बहुत कुछ कर चुके थे। उनका एक विज्ञा- पन उस सालके भारतमित्रके कई अड्डोंमें छपा है। उसकी नकल छापे बिना हम रह नहीं सकते हैं- “सूचना गोवधनिवारण विषयक भाषा काव्य जो रचना करेगा उसको ५) १०) १५) २०) २५) जिस योग्य होगा पुरस्कार दिया जायगा। कोई नाटक या उपाख्यान ( नावेल दुःखान्त बहुत अच्छा किसी विषयपर) कोई लिखे जिसकी कथा मनोहर और करुणारसपूर्ण और आर्यजनके चित्तमें घृणा लज्जा और उत्साह बढ़ानेवाली हो तो ५०) से १००) तक पारि- तोपिक दिया जायगा, ग्रन्थ उत्तम विचित्र कथा पूर्ण और छोटा न हो। __ हरिश्चन्द्र ।" इस विज्ञापनके आरम्भको भाषा बहुत ढीली है, इसमें कई शब्द भकि हैं और उसके अन्तिम वाक्यसे वह अर्थ नहीं निकलता जो निकलना चाहिये। ऐसी भाषाको उस समय कुछ परवा नहीं की जाती थी। पर यह कुछ दोषकी बात नहीं है, क्योंकि तब भाषा बन रही थी। अब तबसे बहुत उन्नति हुई है। आगे और उन्नति होनेसे आज- कलकी भाषामें भी उस समयके लोगोंको बहुत कुछ दोष दिखाई दंगे। यही संसारका नियम है। ____उन दिनों स्वर्गीय बाबू हरिश्चन्द्र प्रचलित हिन्दीमें पद्य लिखनेकी ओर भी झुके थे। उनका उस ढङ्गका एक पद्य ८ सितम्बर सन् १८८१ ई० के भारतमित्रमें छपा है। उसमेंसे कुछ नीचे नकल करते हैं - "बरसा सिरपर आगई हरी हुई सब भूम । बागोंमें झूले पड़े रहे भ्रमरगण झूम ।। बीरबहूटी मखमली बूटीसी अति लाल । हरे गलीचे पर फिरें शोभा बड़ी रसाल ॥" [ ४७३ ]