गुप्त-निबन्धावली आलोचना-प्रत्यालोचना हाय, इतनी रूईको कौन कातेगा ? उस बेचारी बुढ़ियाको डर हो गया था कि सब रुई उसेही कातना पड़ेगी। उसी तरह हमारे द्विवेदीजी महा- राजको भय हुआ है कि पचास साल पहलेकी हिन्दी आजको हिन्दीसे नहीं मिलती है, तब सौ सालके बाद क्या हाल होगा। पर आपको इतना भय न फरमाना चाहिये। सौ नहीं, तीन सौ साल तककी हिन्दी समझी जाती है। सूरदासजीके पद आजकलके हिन्दी पढ़े अच्छी तरह समझ लेते हैं-"तजि मन हरि-विमुखनको संग”, “सन्देशन मधुवन कूप भरे", "नैना अब लागे पछतान","बिन गोपाल बैरन भई कुंजें", "हंसा रे चल चरनसरोवर जहाँ न प्रेम वियोग” आदि सूरदासके पद किसकी समझमें नहीं आते ? यह तीन सौ साल पहलेकी भाषाके पद हैं। दो सौ साल पहले चरणदासजी थे। उनके पद हैं-"मनवा चल बेगमपुर बसिये", "तेरे तनका तनक भरोसा नाही काहेको करत गुमानरे।" सन् १८०२ ईस्वीमें दिल्ली निवासी मीर अमनने “बागोबहार" बनाई । प्रोफेसर आजाद अपनी उईके इतिहासवाली पोथी आबेहयातमें लिखते हैं कि इसीको गद्य उर्दूकी पहली पोथी समझना चाहिये। इसके एक साल बाद कविवर लल्लू लालजीने अपनी प्रेमसागर नामको पोथी लिखी। इन दोनों पोथियोंको बने सौ सालसे अधिक होगये, आजकलके सब हिन्दी पढ़े, उनकी भाषा बहुत अच्छी तरह समझ सकते हैं। द्विवेदीजी उनके कौन कौनसे वाक्य नहीं समझते कृपा करके उन वाक्योंके 'प्रकाशन' का कष्ट फरमावं । जिनको हिन्दी आती है और जिन्होंने हिन्दी सीखी है, उनकी हिन्दी सौ साल बाद भी भली भांति समझी जायगी। दो चार शब्दों- का हेर फेर तो होही जाया करता है। पर जो लोग उटकरलैस हिन्दी- के सुलेखक बन बैठे हैं, जिनकी हिन्दी मातृ-भाषा भी नहीं है और जिन्होंने उसे कायदेके साथ सीखकर अच्छे जुबानदानोंकी संगतकी [ ४४० ]
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