गुप्त-निबन्धावली आलोचना-प्रत्यालोचना लगता है कि न जाने कैसी भारी बात आप कहेंगे, पर पास जाते ही मालूम हो जाता है कि देहाती गुल गप्पाड़ेसे बढ़कर कुछ नहीं है। देहा- तियोंकी आदत होती है कि वह जरासी बातके लिये मुहल्ले भरको सिर पर उठा लेते हैं। जब पूछिये कि इतना हंगामा क्यों है तो “बकरी हांकने" की बात निकलती है। अर्थात् उतना शोर मचाकर ग्रामीणजी कोई युद्ध नहीं कर रहे थे, केवल अपने भाईको समझा रहे थे कि कल उधर नहीं दूसरी ओर बकरियोंको चराने ले जाना । ___ आपकी लम्बी चौड़ी हांपनी चढ़ी हुई बातोंको सुनकर लोग घबरा उठे थे कि न जाने हिन्दीवालोंको कैसी कैसी भूलों और व्याकरणविरुद्ध बातोंका गट्ठड़ लादकर आप लाये हैं। पर देखा तो कुछ नहीं, बस ढोलके अन्दर पोल ! कहां तो आपकी वह घबराहट और बौखलाहट कि जिस अखबारको उठाते हैं, जिस पोथीको उठाते हैं, सबमें वाक्यरचनाका भेद पाते हैं और कहां यह फिसड्डीपन कि एक पुरानी पोथीके साढ़े तीन पंक्तियोंके विज्ञापन पर गिरकर रह गये। वाह ! इतनी शोरशोरीपर यह बेनमकी ! दो चार अखबारोंकी भाषाका मुकाबिला करके दिखाना था, दो चार पोथियोंकी वाक्यरचनाका भेद बताना था। पर यह जरा समझदारीका काम था, इतनी समझ शायद आपमें है नहीं। होती तो दूर जाना न पड़ता, अपनी रचनाहीमें सब रचनाभेद देख लेते । आपकी एक बात दूसरीसे नहीं मिलती, एक वाक्य दूसरेसे नहीं मिलता। खैर, अब वह उदाहरण देख डालिये, जिसे बड़ी धूमधामसे झंडेपर चढ़ाकर द्विवेदीजी महाराज अपनी व्याकरणदानीकी लीला दिखाने सरस्वतीके मैदानमें आये हैं और जिसके घमण्डके मारे आप एंठासिंह बनेजाते हैं- ___ "मेरी बनाई वा अनुवादित वा संग्रह की हुई पुस्तकोंको श्री बाबू रामदीनसिंह 'खङ्गविलास' के स्वामीका कुल अधिकार है और किसीको अधिकार नहीं कि छापै। २३ सितम्बर १८८२-हरिश्चन्द्र" [ ४५२ ]
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