भाषाकी अनस्थिरता अब एक पहाड़ी खखोडरके पुराने उल्लूकी गुड़म गुड़म सुनिये। बहुत दिनसे यह गोबर-गणेश चुपचाप था। अब उसने बङ्गवासीके धर्मभवन पर बैठकर अपने पट्टों सहित बोलना शुरू किया है। द्विवेदीजी आज्ञा करते हैं—“हिन्दीकी अनस्थिरताके दो एक उदा- हरण और देकर हम इस लेखको समाप्त करना चाहते हैं। नीचेके वाक्योंको देखिये। उन्हें एक अखबारसे हम नकल करते हैं- (१) आपको भी इस विषयमें लेखनी उठाना चाहिये । (२) इसके लिये शिक्षा लेना होगी। (३) वह लोग.........जड़ी बूटियां इकठ्ठी करते थे। ये सब कर्तृवाच्य प्रयोग हैं। कर्तृवाच्यमें क्रिया क के अनुकूल होती है। यह बात पहले उदाहरणमें है। पर दूसरे उदारहणमें क्रियाका उत्तर भाग (होगी) कर्म शिक्षाके अनुकूल है। और तीसरे उदाहरणमें क्रियाका पूर्व भाग (इकट्ठी) कर्म जड़ी बूटियांके अनुकूल है। कहीं कर्मके अनुकूल कहीं कत्ताके। कहीं क्रियाका पहला टुकड़ा स्त्रीलिङ्ग होगया, कहीं दूसरा।” विनय यह है कि जो लोग उन नगरों में नहीं रहे जो भाषाके मखजन हैं, जिन स्थानोंसे भाषा निकली और उन्नत हुई, जिन्होंने अच्छे हिन्दी जाननेवालोंका सत्संग नहीं किया-उनके साथ रहकर उनकी बोलचाल नहीं सीखी और उसके तोड़-मरोड़ पर ध्यान नहीं दिया, जिन्होंने हिंदीके विज्ञ सुलेखकों और विद्वानोंके लेख नहीं पढ़े और इस भाषाके इतिहास तथा इसके समयके परिवर्तन पर ध्यान नहीं दिया, वह हमारे द्विवेदीजी की सी ही बातें किया करते हैं। 'उठाना चाहिये' 'लेना होगी' और इकट्ठी करते हैं' का भेद प्रान्तीय है। दिल्लीवाले लिखते हैं-(१) लेखनी उठानी [ ४८१ ]
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