पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/५०१

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गुप्त-निबन्धावली आलोचना-प्रत्यालोचना दिल्ली,आगरा, काशी, पटना इत्यादि जहां-जहां अच्छी हिन्दी-उर्दू के लिखने- बोलनेवाले हैं, वह सब निर्विवाद रीतिसे 'हमें' करे' आदि लिखते और बोलते हैं। यह 'कर' 'सके' की देहाती चाल खाली द्विवेदीजी चलाते हैं और दूसरोंको भी इसकी ओर घसीटनेकी चेष्टा करते हैं। क्या उनके पास इसके लिये कोइ व्याकरणकी दलील है ? ___ भाषाका एक दोष जटिल लिखना भी है। द्विवेदोजी मानो इस समय इसके आचार्य हैं। दास आत्मारामको यही बात समझाते-समझाते कई सप्ताह लग गये। जिस वाक्यमें अर्थात्की जरूरत पड़ती है, उसको सरल-स्वच्छ भाषा लिखनेवाले कभी पसन्द नहीं करते। पर द्विवेदीजीका काम बिना अर्थात्के चलताही नहीं है। आप लिखते हैं- “हिन्दीको कालसह अर्थात् कुछ कालके लिये स्थायी करनेके लिये यह बहुत जरूरी बात है कि उसकी रचना व्याकरण विरुद्ध न हो उसमें सिर्फ ऐसे-ऐसे शब्दोंका प्रयोग हो जो विशेष व्यापक हों अर्थात् जिन्हें अधिक प्रान्तोंके आदमी समझ सके।” अब कोई पूछे कि महाराजजो, यदि 'कालसह' शब्दको आप एक अनघड़ पत्थर समझते थे तो इसके लिखने और फिर उसमें 'अर्थात्' जोड़कर अन्धेको न्योतने और दूसरेके हाथमें उसकी लाठी थमवानेवालो कहावत पूरी करनेकी क्या जरूरत थी ? क्यों न ऐसे शब्द लिखे जायं, जिनका मतलब आप समझमें आ जाय ? भाषामें जटिलता उत्पन्न करनेको क्या आप कुछ भी दोष नहीं समझते। इस जटिलताको तो आपका व्याकरण भी नहीं खो सकता। ___एक और एतराज द्विवेदीजो करते हैं-“कुछ शब्द ऐसे हैं कि जिनका संस्कृतमें कुछ अर्थ है, पर हिन्दीमें वे दूसरे ही अर्थमें प्रयुक्त होते हैं। ऐसे शब्द सर्वथा त्याज्य हैं। वाधित, निर्भर, आन्दोलन और कटिबद्ध आदि शब्द इसी कक्षाके हैं।” इसमें स्यात्को द्विवेदीजी भूल गये, जो उनकी तहरीरोंमें बहुत मिलता है। विनय यह है कि एक [ ४८४ ]