गुप्त-निबन्धावली आलोचना-प्रत्यालोचना तासु तनय परताप हरि परम रसिक बुधराज । सुघर रूप सत कवित बिन, जिहि न रुचत कछु काज ॥२ प्रेम परायन सुजनप्रिय सहृदय नवरस सिद्ध । निजता निज भाषा विषय अभिमानी परसिद्ध ॥३ श्रीमुख जासु सराहना कीन्हीं श्रीहरिचंद। तासु कलम करतूति लखि लहै न को आनन्द ॥४ यह चार दोहें द्विवेदीजीने प्रतापके “संगीत शाकुन्तल"से नकल किये हैं। पाठक, जरा इनके अर्थ पर ध्यान दं और द्विवेदीजीकी अक्लका "तौर" देख। आपकी अजीब अक्ल इनमें प्रतापके रूप आदिकी तारीफ तलाश करती है ! आप फरमाते हैं - "नाटककी प्रस्तावनामें कविका अपने ही मुंह अपनी तारीफ करना अनुचित नहीं। पर यहां पण्डित प्रतापनारायणने मतलबसे कुछ जियादह अपनी तारीफ कर डाली है। ऊपरके अवतरणके आगे भी आपने अपनी तारीफ की है और अपनेको 'पण्डिवर' लिखा है। परम रसिक, सहृदय और नवरससिद्ध इत्यादि विशेषण तो ठीक ही हैं ! पर 'सुघररूप' में विलक्षणता है।" ___ कवि दौड़ें! कविताके समझनेवाले दौड़े! झटसे आगमें राई नून डालं! द्विवेदीजीके बाद कविताफहमीका मैदान साफ है ! फिर ऐसे समझदार कहां। लाखों वर्षमें पृथिवी कभी कोई ऐसा लाल उगल देती है। पहला दोहा साफ ही है। उसमें कवि अपने वंश और पिताकी
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