हिन्दीमें आलोचना भाषाको भ्रम-रहित समझते हैं। उसपर किसीके उंगली रखनेकी गुंजा- इश नहीं देखते । अथवा वह यह समझ बैठे हैं, कि हिन्दी-समालोचकोंकी लकामें अकेले आपही रामभक्त हैं, बाकी सब रामविरोधी। इन दो कारणोंके सिवा, तीसरा तो कोई कारण नहीं दिखाई देता, जिससे द्विवेदीजीको ऊपर कही बात कहनी पड़ती। पर, वह एक बार धीर-भावसे विचार कि जो उसूल वह कायम करते हैं, वह समालोचक-सम्प्रदाय और हिन्दी-साहित्यकी भलाईके हकमें अच्छा है या बुरा । आपके इस नियमसे तो हर लेखक या समा- लोचक-जिसको कुछ तोत्र समालोचना की जावेगी और भूलं दिखाई जावेगी, यही कह उठेगा कि मेरी भूल दिखानेवाले मुझसे जलते हैं। वह मारे ईर्षाके वृहस्पतिके बापको भी तुच्छ बना सकते हैं। उनसे मेरी कई सालसे दुश्मनी है। तबसे वह मुझपर बराबर चोट करते चले आते हैं। यदि आपका यह नियम पक्का मान लिया जाय, तो किसीकी पोथी या लेखकी आलोचना करना और उससे शत्रुता करना एकही बात है। ___उधर हिन्दी साहित्य-संसारमें देखिये तो द्विवेदीजीही बड़े आलोचक हैं। जबसे इस संसारमें आपका नाम हुआ है, तबसे आप बराबर आलोचनामें लगे हुए हैं । आपकी रचनासे आलोचनाका जखोरा भारी है। आपने अपने सामनके लोगोंहीकी नहीं, अपनेसे सैकड़ों वर्ष पहले उत्पन्न होनेवालोंकी आलोचना भी की है और उनके दोष तलाश किये हैं। किसी-किसी पर आपकी आलोचना बराबर चल रही है। तो क्या आपके नियमके अनुसार यही समझा जाय कि आप 'ज्ञानलष- दुर्विदग्ध' हैं और उन सब मरे-जीते लोगोंपर ईर्षा और द्वेषके मारे आपका जी जल रहा है ? आपको वृहस्पतिके बापकी बातोंमें भी पूर्वा- पर विरोध नजर आवेगा ? दूर न जायं एक बार द्विवेदीजी 'सरस्वती' [ ५०३ ]
पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/५२०
दिखावट