पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/५५९

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गुप्त-निबन्धावली आलोचना-प्रत्यालोचना स्वयं पात्र बनते हैं। ऐसी दशामें बङ्गदेशके पढ़े-लिखे और समझदार लोगोंको इस नाटककी बात मालूम न हो गई हो, ऐसा नहीं कह सकते । केवल बङ्गदेश ही नहीं-यह नाटक बङ्गला पढ़े हुए हिन्दुस्तानियोंके हाथमें भी पहुंच गया। यहां तक कि गाजीपुरके सुयोग्य वकील मुन्शी उदितनारायणलालने उसका हिन्दीमें अनुवाद भी कर डाला । यह अनुवाद कई वर्ष हुए, जब हम 'हिन्दी-बङ्गवासी' में काम करते थे, तो हमें मिला था। उसीके पढ़नेसे हमें मालूम हुआ कि बङ्ग-भाषामें इस नामका एक नाटक है। हमने नाटक पढ़ा। पढ़कर हमारे शरीरके रोएँ खड़े हो गये, हृदय कांप उठा। हमने उसकी आलोचना 'हिन्दी- बङ्गवासी' में की और मुंशी उदितनारायणलालको बताया कि यदि कोई बङ्गालो हिन्दूपति महाराणा प्रतापसिंहके चरित्रको न समझकर उनपर झूठा कलङ्क लगावे, तो लगा सकता है। पर आप हिन्दू हैं, हिन्दुस्तानी हैं राजपूतों और महाराणा प्रतापके चरित्रको अच्छी तरह समझते हैं, फिर न जाने क्यों, आपने ऐसी कलङ्कमयी पोथीका अनुवाद किया है ! यह पोथी हिन्दूजातिको, क्षत्रियवंशकी, बेइज्जती करती है और उनपर घोर कलङ्क लगाती है। इसका अनुवाद करनेसे आप पापके भागी हुए हैं। इससे इस कलङ्ककमयी पुस्तकके अनुवादकी जितनी पोथियां छपी हैं, वह सब गङ्गाजीमें डुबो दीजिये और फिर गङ्गास्नान करके पवित्र हूजिये । उदार-हृदय सत्यप्रिय मुंशी उदितनारायणलालने हमारी आलोचना पढ़कर अपने अनुवादकी सब पोथियां गङ्गाजीमें फेंक दी और अपने ऐसा करनेकी हमें खबर दी। तबसे हिन्दीमें उक्त कलङ्कमयी पोथी नहीं है। यदि रहती, तो आज तक कितने हो हिन्दुओं और क्षत्रियोंके कलेजेमें घाव कर डालती। पर आश्चर्य है कि इस २२ सालमें किसी बङ्गालीको इस बातकी खबर न हुई। किसी अखबारवाले या किसी समालोचकने यह नही