तुलसी सुधाकर . दो अढाई महीनेसे यह पुस्तक हमें मिली है। इसमें तुलसीदासकी सतसई पर पण्डित सुधाकर द्विवेदीजीकी कुण्डलियां लगी हुई है। पुस्तक पाकर हमको जितना हर्ष हुआ, पढ़कर उतना नहीं हुआ। यह पुस्तक छपी बहुत अच्छी है, इसका कागज बहुत उत्तम है। तिसपर 'तुलसी सतसई' बहुत प्रसिद्ध पुस्तक है। और सबसे बढ़कर बात यह है कि उसपर महामहोपाध्याय सुधाकर द्विवेदीजी जैसे प्रवीण विद्वानकी कुण्डलियां हैं-इसीसे हमारे चित्तमें एक विचित्र प्रकारकी आशा उत्पन्न हुई थी। हमने सोचा था कि द्विवेदीजीके हाथमें यदि यह पुस्तक आई है, तो अवश्य ही उनकी कुण्डलियां पाठकोंको कुञ्जीका काम देंगी। पर हम दुःखसे प्रकाश करते हैं कि उनकी कुण्डलियोंसे 'तुलसी सतसई' पर एक ताला और लग गया। तुलसी-सुधाकरके पढ़नेवालोंको पहले तुलसीके दोहे समझनेके लिये सिर खपाना पड़ेगा और पीछे सुधाकरजी महाराजकी कुण्डलियाओंका अर्थ लगानेमें पहाड़से टकराना पड़ेगा। तुलसी-सुधाकरकी भूमिका पढ़कर हमको बड़ी आशा हुई। भूमिका बहुत अच्छी हुई है, उसे बहुतसी नई बात मालूम होती हैं। सतसई बनानेवाले तुलसीदास कौन थे, सतसई लिखनेकी रीति कबसे और कैसे चली ; इत्यादि कितनीही बात इसमें लिखी गई हैं। एक जगह भूमिकामें ऐसा भी लिखा है कि शायद बिहारीकी सतसईके अनुकरण पर इस सतसईके तुलसीदासने अपनी सतसई लिखी। इसी प्रकार हमारी भी अटकल है कि पण्डित अम्बिकादत्त व्यासकी कुण्डलियां देखकर सुधाकरजीको 'तुलसी सतसई' पर कुण्डलियां रचनेकी रुचि हुई होगी। पर साथही हमारा यह भी अनुमान था कि कुण्डलियां लिखकर सुधा- करजी महाराज तुलसी सतसईको सरल कर देंगे। वह बात उलटी निकली। [ ५५३ ]
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