गुप्त-निबन्धावली भालोचना-प्रत्यालोचना रचना करनेमें कुछ कम दिन नहीं लगे होंगे। पर इतना सब करनेका फल क्या हुआ ? केवल यही कि दस-बीस आदमी बहुत जोर लगाकर सुधाकरजी महाराजकी इस पुस्तकको समझ सकेंगे। बाकी लोग न समझ सकेंगे, न पढ़ सकेंगे। पुस्तक बनारसके चन्द्रप्रभा प्रेसके मैनेजर पं. जगन्नाथ मेहतासे मिलती है। --भारतमित्र, सन १६०२ ई० । प्रवासीकी आलोचना "प्रवासी” बङ्गभापाका एक अच्छा मासिक-पत्र है। प्रयागसे निकलता है। आकार-प्रकारमें "सरस्वती” के तुल्य है, पर कुछ भारी है। उमरमें सरस्वतीसे छोटा है, पर उससे आगे है। आश्विनकी संख्यामें उक्त पत्रने हिन्दी-सामयिक-साहित्यकी कुछ आलोचना की है। हिन्दी कागजोंकी ओर एक बंगाली कागजका ध्यान होते देखकर हमें बड़ा आनन्द हुआ। क्योंकि अभी तक हिन्दी कागज ऐसे नहीं हुए, जिनके पढ़नेकी जरूरत समझकर बंगाली सज्जन हिन्दी सीखनेका कष्ट गवारा फरमावे । "प्रवासी"का यह कहना बहुतही सत्य है कि संस्कृतसे निकली हुई भारतीय भाषाओंमें हिन्दी सबसे पीछे है और बंगला सबसे आगे। हिन्दीमें लेखक और पाठक दोनों कम हैं ! उसके बोलनेवाले बहुत होने पर भी अपनी भाषाकी ओर उनका कर्तव्य-ज्ञान बहुत कम है। __ आगे प्रवासीने हिन्दीके मासिक पत्रों पर कुछ बातें कही हैं, जो लगभग ठोक हैं और उनसे विदित होता है कि उक्त लेखका लिखनेवाला हिन्दी मासिक पत्रोंकी दशाका ज्ञान रखता है। "सरस्वती" की बात [ ५५६ ]
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