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पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/५८०

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तारा उपन्यास बड़ी है। हमारे गोस्वामीजी महाराजने बहन-भाईकी जो बातचीत कराई है, सो सुनिये- दारा-आखिर यह हैं किसकी तसवीर ? जहांनारा - (मुसकिराकर) मेरे दिलवरकी ! भाई-बहनको कैसी रुचिपूर्ण बात हैं। हमारे गोस्वामीजीके सिवा ऐसी रुचिसम्पन्न बातं और कौन लिख सकता है ? पर क्या गोस्वामीजी महाराजकी सुरुचि यहीं समाप्त होगई ? नहीं, वह उसे और आगे ले जाते हैं- ____दारा-(मनही मन) हा-हां कमबख्त ! तेरे फाहिशापनकी खबर फकत मुझडीको नहीं, बल्कि वालिद साहवको भी पूरे तौरपर है। मगर नालायक ! तेने ऐसे चकाबूके-जाल फैलाकर सभीको गिरिफ़त कर रखा है कि जान-बूझकर भी तेरा कुछ भी नहीं कर सकता। जैसी शुद्ध भाषा है, वैसा ही यह दिव्य विचार है। भाईका विचार बहनके विषयमें इतना सुन्दर होनेहीसे गोस्वामीजीको 'तारा' साहित्यका चमकता हुआ सितारा है। अब भाई-बहनको बात जरा और सुनिये-- “जहांनारा-क्या गौर करने लगे ? दारा- तुम्हारे दिलवरके बारेमें ? जहांनारा-यानी उसके हलाल करनेके तरीके पर ? ए ? जैसे मेरे ऊपर शक करके उस दिन वालिदने एक नौजवान गवैये नूरुद्दीनको हम्माममें खोजेसे कतल करा डाला और एक दिन एक नौजवान गवैये नजीरखांको पानमें जहर देकर मार डाला। क्या वैसा ही कोई तरीका तुम भी मेरे दिलवरके कतल करनेके लिये सोचने लगे ? * * * जहानारा-ज्यादा खूबसूरत यह तसवीर यानी तारा है या मैं ? दारा-(मुस्कराकर) मेरी निगाहमें तो तारासे तुम्ही ज्यादा हसीन मालूम होती हो।"