पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/६१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

गुप्त-निबन्धावली चरित-चर्चा एकही आकारके पत्र हैं और सबका वार्षिक और एक संख्याका मूल्य भी बङ्गवासीक बराबरही है । आकार बङ्गवासीका पहलेसे बहुत बढ़ गया है, इमसे दूसरे पत्रोंका आकार देखा देखी बढ़ताही जाता है । फल यह हुआ, कि बङ्गभापाके छोटे आकार और अधिक मूल्यके समाचारपत्र लगभग मव बन्द होगये । यदि दो चार बचे भी हैं तो उनकी दशा अच्छी नहीं । सस्ते बड़े अखबारोंके सामने उनकी पूछही क्या हो सकती है ? अखबार मस्ता करनेके बाद योगेन्द्रबाबूने पुस्तक मस्ती करनेकी ओर ध्यान दिया। अखबारोंके साथ उपहार देनकी रीति उन्होंने चलाई । इस उपायसे पुराण, महाभारत तथा कितनीही अच्छी पुस्तकं उन्होंने बहुत अल्प मूल्यपर अपने ग्राहकोंको देडाली। यह रीति बङ्गाली अग्वबारों में खूब चल गई है, हर माल इसकी बदौलत बङ्गभाषाके माहित्यमें कितनीही नई नई पोथियां बढ़ती जाती हैं और वङ्गला पढ़नेवाले अल्प मूल्यमें बड़ी बड़ी पोथियां पाते हैं। उपहार बङ्गभापाके कितनही अग्वबार देते हैं, पर हिन्दु धर्मकी पुस्तक जितनी बङ्गवासी आफिससे छपी, उतनी कहीं न छपी । हिन्दीके लिये भी योगन्द्रवायूक हाथसे एक बड़ा काम हुआ । 'हिन्दी- बंगवासी' जारी करके उन्होंने हिन्दी अम्बबाग्वालोंको भी उसी प्रकार उन्नति करनेका पथ दिवादिया था। उनके हिन्दी अखबारकी बदौलत हजारों हिन्दी पढ़नेवाले उत्पन्न हुए। उन्हींके अग्रवारोंको देखकर कई हिन्दी अखबारोंने बड़ा डीलडौल बनाया और मूल्य अल्प किया। भारत- मित्र' यद्यपि हिन्दी-बङ्गवासीसे पुराना है, वरञ्च बंगला बंगवासीसे भी पुराना है, पर उसका वर्तमान आकार-प्रकार हिन्दी बंगवामीकी देखा-देखी हुआ है। बहुत अल्प मूल्य रखकर भी बड़े अखबार चल मकते हैं, यह शिक्षा योगेन्द्रबाबूने दी, इसके लिये हिन्दीके तरफदार उनके ऋणी हैं। एक बङ्गला दैनिक पत्र भी उन्होंने निकाला था। कई वर्ष तक वह चला। अच्छा पत्र था। पहले बड़ उत्माहसे जी लगाकर उसको चलाया [ ४]