पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/६२९

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मुत-निबन्धावली स्कुट-कविता करत चेतना हीन लगाये ताको घेरो। उदय होय ऊषा देवी निज तेज बढ़ाओ। भीषन समन सदन महं ताकहं मारि पठाओ। (८) जब महेस बर दल्यो असुर गन देवनको दल। मूर्तिमती तुम भई पाय सब सुरगनको बल। ऊंचो मस्तक तेरो नभ मण्डलमें छायो। चकित भये सब देव भक्तिसों ध्यान लगायो । रवि ससि वन्हि समान ज्योति भई त्रय लोचनकी । भई आस हिय मैं सबके सङ्कट मोचनकी ।। (६) अरपन करि निज अस्त्र सुरन तव पूजा कीन्ही । घरन कमलको कियो ध्यान जगदम्बा चीन्ही । तब तू करि हुंकार धसी दानवदल भीतर । मारि गिराये असुर किते तव अस्त्रन खरतर ।। अट्टहास तव सुरगणको आनन्द बढ़ायो । नाचें विद्याधरी मोद बहु नभमें छायो ।। (१०) प्रकृति रूपिनी हैमवती जगदम्बा जाया। फैल रही है या जगमें इक तेरी माया । जीव जन्तु अरु कीट देव मानव. सब जगके। सबकी तू गति, अहै पथिक सब तेरे मगके ॥ सुखदे ! सुभदे ! बरदे ! मा ! जो जन हैं तेरे । बने रहैं निस बासर तव चरननके चेरे ॥ [ ६१२ ]