पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/६४६

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जातीय-राष्ट्रिय-भावना साहूकारोंके अब तो प्रतिवर्ष दिवाले कढ़ते हैं, पूंजी घटी चली जाती है ऋणके तूदे बढ़ते हैं। हाहाकार उधर हानीकी टिक्कसकी ललकार इधर, आठों पहर घोर आपद है साहूकारोंके सिर पर। तुम्ही बताओ क्या इस घोर विपदका सहना अच्छा है, इस प्रकारसे प्रजावर्गका पीड़ित रहना अच्छा है। बाबा ! उनसे कह दो जो सीमाकी रक्षा करते हैं, लोहेकी सीमा कर लेनेकी चिन्तामें मरते हैं। अच्छे-अच्छे कपड़ोंसे तुम अपने अङ्ग सजाते हो, इससे क्या हो सकता है जब नीचे कोढ़ छिपाते हो। प्रजा तुम्हारी दीन दुखी है रक्षा किसकी करते हो, इससे क्या कुछ भी होना है नाहक पचपच मरते हो। जो इन कष्टोंका जारी रहना तुम बुरा समझते हो, वड़े खेदकी बात है बाबा ! उनसे आप उलझते हो। भली राह पर चलनेमें सौदा साहबके घोड़े हो, देशवृद्धिकी चलती गाड़ीके मारगमें रोड़े हो। यही स्वच्छ उद्देश्य अजी जातीय आन्दोलनका है, वर्तमान अवसरमें हमको अभाव भारी धनका है। जारी न हो इलेकिवसिष्टम तबतक यह नहिं होना है, परन्तु इसके लिये आपका अजब अनोखा रोना है। गोवधका ले नाम अनोखा तुमने स्वांग मचाया है, नक्शा चितली कबरका तुमने क्या ही खूब दिखाया है। जिस झगड़ेको तूने अपने हाथों आप मिटाया है, अहा! उसीके लिये आज तू छुरी बांध कर आया है ! लज्जा करो धर्मके ऊपर पापकी छुरी चलाते हो, [ ६२९ ]