पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/६५८

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जातीय-राष्ट्रिय-भावना क्या वह दशा नहीं क्या मैं ही भूल गया हूं। कोई ध्वनि सुननेको जबहूं ध्यान लगाता शिवा रुदनका अशिव शब्द तबहूं सुन पाता। अथवा कहीं उलूक कोई चिल्ला उठता है मुवा-मुवाकी ध्वनिसे जी घबड़ा उठता है । झापलके अतिरिक्त बात कोई नहिं करता प्रेतयोनिके सिवा यहां कोई नहीं विचरता। पथिक एक भी नहीं राहमें है दिखलाता बिना बगूले और कोई नहिं आता जाता। मनुजनाद कोसों तक देता नहीं सुनाई चारों ओर घोर सुनसान उदासी छाई । सुन पड़ती नहिं कहीं आज वह ध्वनि सुखकारी आ आ प्यारी वसन्त सब ऋतुओंमें प्यारी । -हिन्दोस्थान, ३१ जनवरी, १९ फरवरी, ४ मार्च १८९० ई० पुरानी दिल्ली धन, वैभव, सुख, मान, वीरगनको अदम्य बल सूरन की सूरता, प्रतिज्ञा दृढ़तर निश्चल । वह अनुपम लावण्य सुन्दरी ललना गनको बसीकरन सुधहरन अनिश्चलकारी मनको । वह सुहावनी छटा धवल ऊंचे महलनकी शोभा धन जनसे भरपूर ! ग्राम नगरनको । रह्यो न कोऊ शेषकाल सबही कहं खायो एक-एक करि वा कराल मुख मांहि समायो । -हिन्दी बङ्गवासी, २५ जून, सन् १८९४ ई. [ ६४१ ]