पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/६६२

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शोभा और श्रद्धा तुम्हरी सेवा करते दीन्हीं आयु बिताय अब तिन कहं बिन तुम्हरे को है आन सहाय ? एक भरोसो तुम्हरो जिनके राम समान दूजो और न सपने हू महं जिनको ध्यान । तुमहिं छाडि हे मेघ ! कहो काके ढिग जाहिं ? कापर करहिं भरोसो कछु सोचो मन माहिं ? एकबार आषाढहि आये वरस बिताय, बरसायो जल चित्त गये सबके हरखाय । तबसों मेघ ! न पायो तुम्हरो दरस बहोरि, ताकि रहे हम ताही दिनसों नभकी ओर । तव प्रसाद त भूमि गईही जो हरियाय, तेरो पंथ निहारत धूरहिं गई बिलाय । सूखे बन उपबन परबत झुरि जरि गई घास, डोलत खग मृग जीह निकासे निपट उदास । तेरे बल जो दाने निकसे परबत फार बिन तेरे सो होय गये जरि बरिके छार । सूखी तरुराजी झुरि झुरिके परि रहे पात, सूखे सरिता सर ऊसर चहुं ओर लखात ! इमि बीत्यो असाढ अरु सावन हू गयो बीत, देखे कहूं न झूले सुने न तेरे गीत । सजी न अबके तेरे दल बादलकी फौज, लूटी हाय न तेरे घनगरजनकी मौज ! चमचम करि चमकी नहिं दामिनी एकहुं बार अरु नहिं छाये घोरघोर घन करत अन्धार ! बह्यो न पूरे बेगहि सीतल सरस बयार, [ ६४५ ]