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पृष्ठ:गुप्त-निबन्धावली.djvu/६६१

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शोभा और श्रद्धा मेघ मनावनि आवहु आवहु मेघ कहां तुम छाय रहे निज प्रेमिन कहं भूलि कहां बिलमाय रहे ? आवहु आवहु भारतके जीवन-धन प्रान ताकि रहे टक लाये तेरी ओर किसान । या बूढ़े भारत कहं दूजी और न आस स्वाति बिना चातककी कौन बुझाबे प्यास । तुम बिन या भारतको दुजो और न कोय सांच कहैं तुम्हरे आगे क्यों राखें गोय ? धूरि उड़त चारहुं दिस सूखे खेत परे आवहु आवहु फेरि करो इकबार हरे । धावहु हे घन ! जावहु पुनि खेतन पर छाय देहु न किन मोतिन सम निज जलकन बरसाय ? आवहु पुनि बसुधाकी पूरी आस करो हरे हरे खेतनसों वाकी गोद भरो। तेरे भारतवासिनकी है एक लकीर बने भये हैं वाहीके जो सदा फकीर । जो घर बन बोहड़ महं राखत तुम्हरी आस मो सब सीस झुकाये बैठे निपट उदास । जो तुम्हरे बल रहते हे घन ! सदा निसङ्क देखहु किन, सो आज भये रङ्कहुते रङ्क। Pr1